दूर देश के हिंदी उस्ताद : Hindi Teachers from Foreign Lands: Part One




एक अरसे से यह ज़ेहन में था, कि भारत से बाहर के विश्वविद्यालयों या अन्य संस्थानों में हिंदी पढ़ाने वाले और हिंदी में शोध करने वाले अध्यापकों आदि पर एक कड़ी यहाँ शुरू की जाये क्योंकि उनको लेकर हमारे हिंदी के वृत्तों में कोई व्यवस्थित कहानी नहीं है। स्वागत-योग्य है कि इस बीच में विश्व हिंदी डाटा बेस जैसे उपयोगी स्थल वेब पर उपलब्ध हुए हैं।


http://www.vishwahindidb.com/

हमारे नज़रिए से, तेल अवीव विश्वविद्यालय इजराइल के श्री गेनादी श्लोम्पेर से बेहतर कोई और हमारे लिए नहीं हो सकता था, इस श्रृंखला को शुरू करने के लिए। निजी संबंधों के अलावा हिंदी को लेकर उनका समर्पण, उनकी योग्यता और उनका विद्यार्थियों के लिए तथा उनके विद्यार्थियों का उनके प्रति स्नेह मुग्ध करने वाला रहा है। एक अत्यंत सभ्य, उदार शख्सियत और एक अच्छे दोस्त तो वे हैं ही। हिंदी के साथ उनका भारत-प्रेम भी बड़े निर्लज्ज तरीके का है। 



स्थिति यह है कि हम यह कहते तो मिलते हैं कि सौ या डेढ़-सौ विदेशी विश्वविद्यालयों या संस्थाओं में हिंदी पढाई जाती है , पर यदि इन विश्वविद्यालयों की कोई एक समवेत सूची खोजनी हो कहीं, तो हाथ पाँव फूल जाएँ। यही स्थिति इनमें काम करने वाले अध्यापकों सम्बन्धी जानकारी को लेकर है। विद्यार्थियों के बारे में तो और भी कम पता है। यही मामला सिलेबस आदि के स्वरुप को लेकर है। कुल मिलाकर, भारत-बाहर हिंदी शिक्षण और शोध की दुनिया, हमारे बेहतर परिचय के दायरों से बहुत दूर है।
ऐसा क्यों है, इसे जानने और इस स्थिति को बदलने के उपाय करने का समय आ गया है।   अगर आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे, कि भारत और भारत से बाहर, एक स्तर पर, हिंदी को हिंदी से जोड़ने  में अंग्रेजी का हाथ भी है। हिंदुस्तान में भी, हिंदी को लेकर अंग्रेजी में काफी काम हुआ है और उसको लेकर एक श्रृंखला  अलग से शुरू की जा सकती है। वैश्विक स्तर पर हिंदी का बहुत सा काम अंग्रेजी के जरिये से है या वहां सामान्य सम्प्रेषण में अंग्रेजी एक माध्यम के रूप में काम करती है।  इससे यह बात सामने आती है कि यदि हमारे यहाँ के हिंदी शिक्षार्थी या अध्यापक या स्कॉलर को विदेशी हिंदी शैक्षणिक जगत से जुड़ना है तो अंग्रेजी में एक न्यूनतम व्यावहारिक योग्यता हासिल करनी होगी; दूसरे, अपने सांस्कृतिक मिज़ाज़ को ग्लोबल बनाना होगा; तीसरे. अपने पेशेवराना लेवल को उठाना होगा। यदि हम ऐसा कर पाएं तो इसके कमाल नतीजे निकलेंगे ऐसी आशा है, और इस प्रकार हिंदी स्थानीय सीमाओं से निकल कर एक सचमुच  वैश्विक चेहरा पाने की ओर बढ़ेगी। 

गेनादी जी लाज़बाब आदमी हैं। इस पोस्ट की शुरुआत हम उनके एक संक्षिप्त साक्षात्कार से कर रहे हैं।  बाद में, वे किस तरह से टेलीविजन के माध्यम से हिंदी पढ़ाने का अभिनव अभ्यास कर रहे हैं; एक किताब भी आयी है उनकी इस पर; इसको लेकर सामग्री है यहाँ। उनके दो  बहुत जरूरी लेख और कुछ तथ्य उनके अकादमिक करियर को लेकर भी; यहाँ पेश कर रहे हैं। कुछ ख़ास तसवीरें भी पाएंगे आप इस जगह पर। उनकी विभिन्न गतिविधियों को लेकर। भारत के सम्बन्ध में कुछ लिखने को भी कह रहे हैं हम उन्हें और यह जल्दी आपके समक्ष होगा। हम उनका ईमेल पता भी यहाँ दे रहे हैं, ताकि विदेश में हिंदी शिक्षण को लेकर आपके मन में कोई सवाल हों तो आप उनसे सीधे पूछ सकें। वे इसके लिए तैयार हैं। 

इसके अलावा वे एक ब्लॉग भी लिखते हैं; मूलतः अपने विद्यार्थियों के लिए, लेकिन आप पाएंगे कि उस पर प्राप्त सूचनाएं आदि सभी हिंदी छात्रों और अध्यापकों के काम की हैं। नीचे उसका लिंक है।  

 https://www.tau.ac.il/~genadys/index.Eng.htm 


पोस्ट के अंत में कुछ आँखें खोल देने वाले यूट्यूब लिंक भी दिए गए हैं।  साथ ही गेनादी जी का अकादमिक  जीवन-वृत्त भी। 
इस पोस्ट के लिए सभी जरूरी लेख आदि जुटाने में  श्री प्रवीण मलिक जी ने ख़ासी मेहनत  की।  टीवी से सम्बंधित गेनादी जी की किताब पर भी उन्होंने टिपण्णी तैयार की।  इस सब के लिए वे बहुत धन्यवाद के हकदार हैं। और हाँ, खुद गेनादी जी भी बड़े शुक्रिया के हक़दार हैं, जिन्होंने अपनी सुविधा-असुविधा का ख्याल किए बिना, मांगी गयी तमाम सामग्री तत्परता से प्रदान की। 

गेनादी जी का ईमेल पता :
genady.shlomper@gmail.com


2009 -2011 का हिंदी बैच


अपेक्षाकृत नया हिंदी बैच





कुछ अनौपचारिक क्षण 











     साक्षात्कार: गेनादी श्लोम्पेर



प्रश्न -गेनादी श्लोम्पेर के जीवन का संक्षिप्त परिचय?

उत्तर -मैंने 1954 में भूतपूर्व सोवियत संघ में जन्म लिया था। 1976 में मैंने ताश्कंद विश्वविद्यालय के भारतीय साहित्य और भाषाशास्त्र के विभाग से एम.ए की उपाधि प्राप्त की। 1994 में मैं रूस से जाकर इज़राइल में बस गया। 2002 में हिब्रू विश्वविद्यालय यरुशलम से हिंदी व्याकरण में पीएच.डी. की। अधिकतर समय हिंदी के अध्यापन में लगा रहा। 1996 में मैंने इज़राइल में हिंदी की पढ़ाई का आरंभ किया। अब तेल अवीव विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ा रहा हूं। मेरी कलम से हिब्रू भाषा भाषियों के लिये हिंदी की कई पाठ्य पुस्तकें निकलीं। टी.वी. समाचारों पर आधारित ‘सनातन धर्म’ तथा ‘हिंदी कहानी का उद्गम और विकास’ नामक कोर्स तैयार किए। हिंदी,उर्दू और पंजाबी से रूसी भाषा में अनेक कहानियों के अनुवाद प्रकाशित करवाए।

प्रश्न -इज़रायल में हिंदी के अध्ययन के प्रति रूचि के क्या कारण हैं?

उत्तर -तेल अवीव विश्वविद्यालय के पूर्वी और दक्षिण एशिया के विभाग में इस सारे क्षेत्र के देशों की संस्कृति और इतिहास का अध्ययन करते हैं। चीन,जापान और भारत को इस पाठ्यक्रम में विशेष महत्व दिया गया है। पाठ्यक्रम के अनुसार इन तीनों देशों की कोई एक भाषा सीखना अनिवार्य है। कुछ युवक -युवतियाँ हिंदी को बस इसलिए चुन लेते हैं की उनके विचार में हिंदी अन्य तीन भाषाओं की तुलना में सरल है। कुछ ऐसे छात्र भी हैं जिन्होंने चीनी या जापानी सीखने का प्रयत्न किया भी था,मगर हारकर छोड़ दिया और हिंदी की और मुँह किया। लेकिन अधिकतर छात्रों ने हिंदी को समझ-बूझकर ही चुना था। हर वर्ष हिंदी सीखने के लिए तेल अवीव विश्वविद्यालय में २०-२५ विद्यार्थी आते हैं और यरुशलम विश्वविद्यालय में १०-१५ विद्यार्थी उनके लिए हिंदी एक भाषा ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को समझने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। हिंदी के मुख्य उपभोक्ता इज़रायल के हज़ारों यात्री और भारतीय सभ्यता के प्रेमी हैं। इज़रायल के बहुत से लोग यह अच्छी तरह समझने लगे हैं कि हिंदी के माध्यम से भारत की सभ्यता के द्वार खुल सकते हैं। इसलिए वे हिंदी पढ़ना चाहते हैं। 

प्रश्न -हिंदी सिखाने के लिए आप किस विधि का प्रयोग करते हैं तथा सर्वोतम विधि कौनसी है?

उत्तर -हिंदी सिखाने के लिये मैंने कई पाठ्य-पुस्तकें तैयार की हैं। उनकी रचना का मुख्य सिद्धांत यह था कि पुस्तकों में दी हुई सामग्री छात्रों के लिये रोचक हो, और वे इसी सामग्री के माध्यम से भारत की संस्कृति, भौगोलिक स्थिति, सामाजिक व्यवस्था, धर्म-दर्शन, आधुनिक भारत से संबंधित विभिन्न पहलुओं से परिचित हो जाएं। पाठों में भी मैं भरसक प्रयास करता हूं कि विद्यार्थी बोलने और बातें समझने की आवश्यकता अनुभव करें। इसके लिये मैं चित्रों और विडियो का प्रयोग करता हूं। चित्र वही हैं जिनको मैंने ख़ुद खींचा था और विडियो तो आजकल इंटरनेट के दौर में ख़ूब मिलते हैं। मेरे पाठों में फ़िल्मी गाने और फ़िल्मों के कटे हुए टुकड़े ख़ूब चलते हैं। अवसर मिलने पर मैं अपने छात्रों को छुट्टियों में भारत का चक्कर कराता हूं।

प्रश्न-भारतीय हिंदी स्नातकों हेतु विदेश में हिंदी शिक्षण के अवसरों पर अपने विचार रखें?

उत्तर -मैं कई भारतीयों से परिचित हूं जो विदेश में हिंदी पढ़ाते हैं या पहले पढ़ाई थी। उदाहरण के लिये प्रो. नवीन चंद्र लोहनी इन दिनों चीन में हिंदी पढ़ा रहे हैं, प्रो. साईनाथ चपले तुर्की में और प्रो. शिवकुमार सिंघ पुर्तगाल में। विदेशों में हिंदी पढ़ाने के अधिकतर अवसर भारतीय शिक्षा मंत्रालय या केंद्रीय हिंदी संस्थान के माध्यम से मिलते हैं। इज़रायल आपके लिये विदेश ज़रूर है, मगर मेरे लिये स्वदेश है। इस लिये मुझे जिस तरीके से शिक्षक का काम मिला वह विदेशियों से अलग था।

प्रश्न-विदेश में हिंदी शिक्षण में अध्यापक की भूमिका क्या हैं?

उत्तर -अध्यापक को यह समझना चाहिये कि उसके छात्र हिंदी क्लास से निकल कर दूसरी संस्कृति और भाषाओं के चपेट में आ जाएंगे। बहुत ज़रूरी है कि उनमें हिंदी से रुचि बनी रहे और वे घर जा कर भी स्वावलंबी रूप से अपनी जानकारी बढ़ाने का काम जारी रखें। इसी रुचि को प्रोत्साहन देना और छात्रों को सही रास्ता दिखाना अध्यापक का लक्ष्य है।

        प्रस्तुति: प्रवीण मलिक



 



टीवी कार्यक्रमों के द्वारा इज़रायली छात्रों को हिंदी पढ़ाना गेनादी जी का हिंदी शिक्षण के मामले में नवाचार कहा जाएगा। इस प्रविधि और अनुभव को लेकर गेनादी जी ने पूरी किताब ही लिख दी है। इस पुस्तक के बारे में श्री प्रवीण मलिक ने एक संक्षिप्त टिपण्णी लिखी है। पाठकों की सुविधा के लिए उसे हम नीचे दे रहे हैं। 

तत्पश्चात इसी अवधारणा पर गेनादी जी का एक पूरा और महत्वपूर्ण आलेख है। विस्तार से जानने के लिए उसे पढ़ें।





गेनादी हिंदी शिक्षण विधि

  

प्रस्तुति: प्रवीण मलिक


 


आज हम वैश्वीकरण के दौर में जी रहे हैं, जहाँ विश्व की सीमाएँ सिमटती जा रही हैं।  इसके कारण वैश्विक संस्कृतियाँ एवं भाषाएँ भी एक-दूसरे के नज़दीक आयी हैं। सामान्य व्यक्ति में भी अपरिचित संस्कृतियों को जानने-समझने और अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भो से रूबरू होने की ललक बढ़ती जा रही है | इन परिस्थितियों ने विदेशी भाषा शिक्षण को सभी देशों में एक व्यापक आयाम प्रदान किया है और विदेशी भाषा-अध्येताओं का मार्ग प्रशस्त किया है | भारत के वैश्विक उभार के कारण हिंदी भाषा के प्रति वैश्विक आकर्षण बढ़ा है,जिससे विदेश में हिंदी शिक्षण के प्रति रुचि में भी इज़ाफ़ा हुआ है।  वर्तमान समय में विश्व के लगभग १०० देशों में या तो जीवन के विविध क्षेत्रों में हिंदी का प्रयोग होता है अथवा हिंदी अध्ययन 
की व्यवस्था है।


गेनादी श्लोमपेर इज़रायल के तेल-अवीव विश्विद्यालय में हिंदी शिक्षण का कार्य करते हैं।  हिंदी अध्यापन के लम्बे दौर में डॉ. गेनादी ने इस दिशा में अनेक प्रयोग किए।  उन्ही प्रयोगों पर उनकी पुस्तक ‘टीवी के माध्यम आज की हिंदी सीखने का कोर्स’  दृष्टि डालती है।  जब डॉ. गेनादी ने हिंदी प्राध्यापक का कार्यभार सम्भाला तो उन्होंने पाया की हिब्रू में हिंदी सीखने के लिए कोई भी पुस्तक उपलब्ध नहीं थी।  शुरुआत में उन्होंने शिक्षण हेतु उन पुस्तकों का प्रयोग करने की सोची जिनसे उन्होंने ख़ुद हिंदी सीखी थी।  किंतु उन पुस्तकों की अधिकतर सामग्री पर सोवियत वैचारिक प्रभाव अत्यधिक होने के कारण उन्हें अपना विचार त्यागना पड़ा।  अंग्रेज़ी भाषा में भी जो पुस्तकें उपलब्ध थी, वे भी डॉ. गेनादी की कसौटी पर खरी नहीं उतरी।  अंततः उन्होंने प्राध्यापक के तौर पर सामग्री चयन की छूट के कारण स्वयं पाठ्य पुस्तकें तैयार करने का निर्णय लिया।  उनके इसी निर्णय का नतीजा है उनकी ‘टीवी के माध्यम आज की हिंदी सीखने का कोर्स’ पुस्तक।


शुरू में कम्प्यूटर पर हिंदी के फ़ॉंंट की अनुपलब्धता के कारण वे सारे पाठ और अभ्यास हाथ से लिखते थे और उनकी अनुलिपियाँ बनाकर विद्यार्थियों में बाँटते थे।  हिंदी शिक्षण के दौरान विद्यार्थियों की सैद्धांतिक जानकारी को व्यवहारिक रूप देने की दिशा में डॉ. गेनादी के सामने अनेक विकल्प मौजूद थे,जिनमे बोलचाल की भाषा, फिल्में तथा गम्भीर साहित्यिक रचनायें तक शामिल थी।  परंतु गेनादी के अनुसार भाषा की पढ़ाई में रूचि बनाए रखना अत्यंत आवश्यक होता है तथा छात्रों को दैनिक विकास का भी अनुभव होना चाहिए।  इसलिए उन्होंने साहित्य का विषय स्थगित कर दूसरे विषयों की तरफ़ रूख किया। 

प्रथम प्रयोग के तौर पर उन्होंने समाचार-पत्रों की भाषा चुनी।  आलेखों के पठन-पाठन पर आधारित यह कोर्स काफ़ी सफल रहा।  दूसरे प्रयोग के रूप में डॉ. गेनादी ने हिंदी आकाशवाणी पर आधारित कोर्स चलाया जोकि एक हद तक सफल रहा।  परंतु यह अत्यधिक अभ्यास की माँग करता था।  इस कमी की पूर्ति टी.वी. माध्यम से पूरी हुई।  टी.वी. माध्यम डॉ. गेनादी के प्रमुख शिक्षण सिद्धांत ‘रोचकता’ पर खरा उतरता था।  इससे आकाशवाणी माध्यम में जो कमियाँ थी वो दूर हो गयी।  शुरू में उन्होंने इंडिया टी.वी. के समाचारों को आधार बनाया बाद में जी.टी.वी. और राजस्थान पत्रिका के समाचारों को भी उसमें  जोड़ दिया गया।


इस प्रयोग के शुरुआती दौर में विविधता का भरपूर ध्यान रखा गया,  जिसमें
चुनाव,शिक्षा,अर्थव्यवस्था,सिनेमा,धर्म,खेल,कला,साहित्य,समाज व पर्यटन आदि विविध विषयों को आधार बनाया गया।  इसके बाद विद्यार्थियों के रूझानों एवं रूचियों को ध्यान में रखकर उन्होंने दो ही महत्वपूर्ण विषयों का चयन किया जिसमें एक तो ‘हिंदू धर्म’ व दूसरा ‘सामाजिक समस्याएँ’ रहा। 
सामग्री संकलन के दूसरे चरण में डॉ. गेनादी ने समाचारों को कठिनाई के दर्जे के अनुसार विभाजित किया।  अंतिम चरण में उन्होंने ऐसे समाचार चुने, जिन्हें अभ्यास के तौर पर विद्यार्थियों द्वारा बिना सहायता के सुनना और अनुवाद करना होगा | हिंदू धर्म पर आधारित विषय को उन्होंने पाँच अध्यायों में बांटा - १.मंदिर,२.तीर्थ-यात्राएँ,३.पर्व,४.हिंदू धर्म और आधुनिक समाज,५.साधु-संत महात्मा।  टी.वी. समाचारों के माध्यम से शिक्षण के दौरान उन्होंने समाचारों के विशेष व्याकरण पर बल दिया।  उन्होंने पाया कि टी.वी.समाचारों में कर्म को कर्ता की अपेक्षा प्राथमिकता दी जाती है; टी.वी समाचारों के बोधक क्रिया रूप पर भी उन्होंने ध्यान दिया।  डॉ. गेनादी ने माना कि दूरदर्शन की भाषा की विशेषताओं में उसकी विशेष शैली प्रथम है।  उन्होंने चित्रों की भाषा को सार्वभौमिक माना।  उसकी दूसरी विशेषता के तौर पर उसकी स्पष्ट और सरल भाषा को प्रमुखता दी।  भाषा की समसामयिकता जोकि टी.वी.माध्यम पर अक्सर देखी जाती है ने उनका ध्यान खींचा।  डॉ. गेनादी ने सामग्री चयन की प्रक्रिया में सावधानी बरतने की सलाह दी, क्योंकि कुछ टी.वी.चैनलों की भाषा भ्रष्ट और विकलांग होती है। 

टी.वी.माध्यम की तमाम सीमाओं के बावजूद भी डॉ. गेनादी दूसरे माध्यमों की तुलना में इस माध्यम को सबसे प्रभावी मानते हैं, क्योंकि व्यावहारिकता की कसौटी पर यह माध्यम खरा उतरता है। 










हिंदी के टी.वी. चेनलों के समाचारों पर आधारित पाठ्य-पुस्तक




डॉ. गेनादी श्लोम्पेर



 

1. पाठ्य-पुस्तक की ज़रूरत



15 साल पहले जब मैंने इज़रायल में हिंदी का अध्यापन शुरू किया था, मेरे सामने जो मुख्य लक्ष्य उभर कर आया वह हिंदी की पर्याप्त पाठ्य पुस्तकें तैयार करने का था, ताकि छात्र अपनी मातृभाषा में हिंदी का अध्ययन कर सकें। उस समय हिब्रू में हिंदी सीखने के लिये कोई भी पुस्तक उपलब्ध नहीं थी। यहां तक कि हमारे देश में मुझे ही हिंदी भाषा का प्रथम अध्यापक होने का सम्मान मिला है।

     वैसे सब से पहले मैंने उन पुस्तकों का प्रयोग करने की सोची जिनसे मैंने खुद हिंदी सीखी थी। वे दीमशित्स, गोर्यूनोव और उलत्सीफ़ेरोव की लिखी हुई पाठ्य पुस्तकें थी। वास्तव में ये उच्च कोटि की पुस्तकें थी। लेकिन इस विचार को मैंने तुरन्त टाल दिया। मुख्य कारण यह था कि वे पुस्तकें सोवियत संघ के काल में लिखी गयी थी और उनपर कम्यूनिस्ट विचारधारा की छाप पड़ी। पढ़ाई के लिये अधिकतर सामग्री सोवियत संघ के जीवन पर आधारित थी। जैसे व्लादीमीर लेनिन की जीवनी, महान अक्टूबर क्रांति, सोवियत संघ का आर्थिक विकास, रूस की ऋतुएं आदि आदि। स्पष्ट है कि ऐसी सामग्री मेरे किसी काम न आ सकती थी। अंग्रेज़ी भाषा में भी जो किताबें उस समय उपलब्ध थीं उनमें भी किसी न किसी कारण से मुझे रस नहीं आया।

     अंततः मुझे पढ़ने की सामग्री का चयन करने और अध्यापन के तौर तरीके चुनने की पूरी आज़ादी मिली। तब मैंने अपनी अध्यापन-पद्धति और समझ के अनुसार ही स्वयं पाठ्य पुस्तकें लिखने का निर्णय किया। शुरू में कम्प्यूटर पर हिंदी के फ़ॉन्ट नहीं थे। इस लिये मैं सारे टेक्स्ट और अभ्यास हाथ से लिखता था और उनकी अनुलिपियां बनाकर विद्यार्थियों में बांटता था। फिर पिछली सदी के नौवें दशक के अंत में कम्प्यूटर में हिंदी फ़ॉन्टों का प्रयोग शुरू हो गया। इससे मुझे काफ़ी सहायता मिली। धीरे-धीरे मैंने दो साल के कोर्स के लिये पुस्तकें लिखी। तब लगा कि राहत की सांस ले सकता हूं। लेकिन जल्द ही पता चला कि विद्यार्थियों ने दो साल के अनिवार्य कोर्स को पर्याप्त न समझकर एक और साल पढ़ने की मांग की। तब उनके लिये तीसरे साल का कोर्स चलाया गया।



2. तीसरे साल में क्या सीखें?  समाचार-पत्र और रेडियो



     पढ़ाई के दूसरे साल के अंत तक विद्यार्थी हिंदी व्याकरण के सब मुख्य नियमों का अध्ययन समाप्त कर लेते हैं। इस तरह तीसरा साल उनकी सैद्धांतिक जानकारी को व्यवहारिक रूप देने का अच्छा मौका था। लेकिन पहले मैं इस दुविधा में पड़ गया कि कोर्स का विषय क्या बनाया जाए। वैसे विकल्प तो बहुत थे बोलचाल की भाषा और फ़िल्मों से लेकर गंभीर साहित्यिक रचनाओं तक। विषय चुनना कोई सरल सी बात नहीं लगा। हर एक विषय के अपने अपने गुण और अवगुण होते हैं।

     पहले मैंने सोचा कि शायद विद्यार्थियों को समृद्ध हिंदी साहित्य की रचनाएं प्रस्तुत की जाएं जिनकी कोई कमी नहीं है। चयन के लिये विधियों की विविधता भी और विख्यात लेखकों की बड़ी संख्या उपलब्ध है। उपन्यास, कहानियां, नाटक, कविताएं - ये सब स्वाभाविक तौर पर आगे की पढ़ाई का सब से अच्छा विषय लग रहे थे। साहित्य ही हिंदी भाषा में अभिव्यक्ति के सब से अच्छे गुणों का प्रदर्शन करता है, जैसे परिशुद्धता, अलंकारयोजना तथा बारीक से बारीक भावनाएं व्यक्त करने की क्षमता। लेकिन जिन विद्यार्थियों ने अभी अभी आधारभूत स्तर पर भाषा सीखी, उनके लिये भाषा की समृद्धता गुण नहीं, अवगुण बन सकती है। शब्दों के इस समुद्र में वे डूब जाएंगे। एक छोटी सी कहानी पढ़ने में उन्हें बहुत समय लग सकता है। हर दूसरा शब्द उन्हें शब्दकोश में खोजना पड़ेगा। और हर एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। ऐसा काम उबानेवाला होगा। मेरे विचार में भाषा की पढ़ाई में रुचि बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। छात्रों को दैनिक विकास का अनुभव होना चाहिये। इस लिये मैंने साहित्य का विषय स्थगित करके दूसरे विषयों की तरफ़ रुख़ किया।
     तब मैंने प्रयोग के तौर पर हिंदी समाचार-पत्रों की भाषा चुनी। भाषा सीखने के स्रोत के रूप में समाचार पत्रों की कुछ विशेष खूबियां हैं। एक तरफ़ तो यह आधुनिक भाषा है, जो आज की घटनाओं की चर्चा करती है। जिसके माध्यम से छात्रों को आज के भारत के बारे में ऐसी जानकारी प्राप्त होती है जिसे वे किसी भी और पाठ में प्राप्त नहीं कर पाते। इस तरह हिंदी की क्लासें अधिक आकर्षक बन जाती हैं। दूसरी तरफ़ समाचार-पत्रों की शब्दावली साहित्य के विपरीत बहुत ही सीमित है। और यदि कोई एक विषय, जैसे चुनाव, सामाजिक आंदोलन, आतंकवाद, अंतर्राष्ट्रीय संबंध या खेल-कूद आदि चुना जाए, और लगातार किसी एक विषय पर आलेख पढ़े जाएं, तो थोड़े ही दिनों में विद्यार्थी आवश्यक शब्द-भंडार एकत्र करके ऐसे आलेख स्वयं, शब्दकोश की सहायता के बिना भी पढ़ने के सक्षम होंगे। समाचार-पत्रों का यह कोर्स काफ़ी सफल रहा।
     लेकिन जब इंटरनेट पर दैनिक रेडियो समाचारों का प्रसारण शुरू हुआ, तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं अपना तीसरे साल का कोर्स रेडियो समाचारों पर आधारित करूं? शब्दावली की दृष्टि से रेडियो और अख़बार में बड़ी समानता है। लेकिन शैली की दृष्टि से रेडियो के समाचार कहीं ज़्यादा लाभदायक हैं। रेडियो पर बोले जानेवाले वाक्य संक्षिप्त हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य है, कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक जानकारी देना। संक्षिप्त  का मतलब है, समझने के लिये अधिक सरल। इस तरह मैंने मितभाषी भाषा को प्राथमिकता दी। रेडियो समाचारों में एक और लाभ है विद्यार्थी हिंदी सुनकर समझने का तथा सही उच्चारण का भी अभ्यास लेते हैं। जोकि कम महत्वपूर्ण नहीं है। तब मैंने एक सत्र के लिये प्रयोगवश हिंदी रेडियो का कोर्स चलाया। वह भी सफल रहा। मुश्किल बस यह थी कि सुनकर समाचार समझने के लिये काफ़ी समय से अभ्यास करने पड़े। इस तरह समय के अभाव के कारण समाचारों के विषय भी ज्यादा सीमित रहे। यदि समाचार-पत्र के समांतर रेडियो के समाचार पढ़ाना संभव होता, तो पाठों के परिणाम कहीं ज़्यादा प्रभावशाली होते।


3. नये स्रोत की तलाश में टेलीविजन

प्रौद्योगिकी के विकास और इंटरनेट  पर टी.वी. चेनलों के विस्तार ने मेरे एक और विचार को संभव बना दिया। संचार के विभिन्न माध्यमों की अपनी-अपनी शैली ज़रूर है। उनकी शब्दावली यद्यपि पूरी तरह एक जैसी नहीं है, पर बड़ी हद तक मिलती जुलती है, क्योंकि उन सब का एक ही लक्ष्य होता है जनता तक आज के समाचार पहुंचाना।
     मेरे विचार में पढ़ाई की सामग्री का चयन उन दो सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिये कि टेक्स्ट रोचक हों और समझने के लिये कठिन न हों। यदि इस दृष्टि से टी.वी. समाचारों को देखा जाए, तो पता चलेगा कि वे इन सिद्धांतों पर पूरे उतरते हैं। यहां तक कि जनसंचार के दूसरे माध्यमों की तुलना में टी.वी. के कुछ विशेष लाभ हैं।
     टी.वी समाचारों को एकत्र करने के प्राथमिक चरण पर मैं आधा-आधा घंटे के देश-विदेश के समाचार रीकॉर्ड कर लेता था। बाद में उन्हें काट-काट के भिन्न-भिन्न विषयों के अनुसार छांट लेता था। शुरू में वे केवल ज़ी टी.वी. के समाचार थे। बाद में इंटरनेट  में प्रसारित होने वाले एन.डी.टी.वी, ईंडिया टी.वी. तथा राजस्थान पत्रिका के समाचार भी जुड़ गये। यह बात उल्लेखनीय है कि समाचारों के प्रसंगों की विविधता असीम है। दो साल के अंदर मैंने जिन समाचारों के संग्रह बनाए हैं, उनमें कुछ प्रसंग निम्नलिखित हैं
     कृषि, सेना, कला, बॉलीवुड, दर्शनीय स्थान, अपराध, प्राकृतिक आपदा , अर्थ व्यवस्था, शिक्षा, चुनाव, पर्व, खाना, उद्योग, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, साहित्य, चिकित्सा, प्रकृति, राजनैतिक दल, प्रसिद्ध मनुष्य, धर्म, विज्ञान, सामाजिक समस्याएं, खेल-कूद, आतंकवाद, पर्यटन, व्यापार, यातायात के साधन, मौसम, महिलाओं की स्थिति आदि-आदि।
     हर विषय पर मेरे पास दर्जनों  समाचार इकट्ठे हुए हैं। स्पष्ट है, कि इन सबको एक साथ पढ़ाया नहीं जा सकता, वर छात्रों को एक साल के दौरान सुबह से शाम बैठकर समाचार सुनना पड़ता। इस लिये मैंने विद्यार्थियों के रुझानों और रुचियों को ध्यान में रखकर दो ही महत्वपूर्ण प्रसंगों का चयन किया। एक हिंदू धर्म और दूसरा सामाजिक समस्याएं। एक प्रसंग नित्य का है, तो दूसरा सामयिक। हिंदू धर्म पहले सत्र में पढ़ाया जाता है, तो सामाजिक समस्याएं दूसरे सत्र में।
     पढ़ने की सामग्री तैयार करने के दूसरे चरण में मैंने इकट्ठे हुए समाचारों को कठिनाई के दर्जे के अनुसार विभाजित किया। कठिनाई कहने से मेरा अर्थ है नये शब्दों की संख्या, बात करने की गति और मानक हिंदी का प्रयोग। बहुत कठिन समाचारों को मैंने ठुकरा दिया।
     अगले चरण में मैंने चुने हुए समाचारों का पूरा टेक्स्ट लिख डाला, तथा हर टेक्स्ट के लिये प्रश्न, शब्दावली और हिब्रू से हिंदी में अनुवाद करने के अभ्यास जोड़े हैं।
     अंतिम चरण मैं मैंने ऐसे समाचार चुने जिन्हें अभ्यास के तौर पर विद्यार्थियों को मेरी सहायता के बिना सुनना और अनुवाद करना होगा। ये समाचार छात्रों को पढ़ाई शुरू होने के दो सप्ताह बाद प्रस्तुत किये जाते हैं। शुरू-शुरू में वे केवल ऐसे समाचार देखते-सुनते हैं जिनके लिये पूरा टेक्स्ट और शब्दावली उपलब्ध है। बाद में स्वतंत्र काम के लिये जो अभ्यास दिये जाते हैं वे पूर्ण समाचार नहीं हैं, अपितु अलग-अलग वाक्य हैं, जिन्हें मैंने विभिन्न सामाचारों से काट-काट कर तीन समूहों के रूप में एकत्र किया। इस तरह विद्यार्थी धीरे-धीरे सुनकर बातें समझना सीखते हैं। और दो सप्ताह बाद मैं उन्हें अभ्यास के लिये पूर्ण समाचार देता हूं। इस तरह एक महीने भर के अंदर उनमें समाचार सुनने-समझने की क्षमता बढ़ जाती है। तब से उनका शब्द-भंडार बढ़ाने की बात ही शेष रह जाती है।
     हिंदू धर्म पर आधारित पाठ्य पुस्तक 5 अध्यायों में बंटा हुआ है 1.मंदिर, 2.तीर्थ यात्राएं, 3.पर्व, 4. हिंदू धर्म और आधुनिक समाज, 5.संत महात्मा। हर एक अध्याय के साथ स्वतंत्र काम के लिये छः-सात अतिरिक्त समाचार प्रस्तुत किये जाते हैं।
     तीन महीने के सत्र के अंत में छात्र हिंदू धर्म से संबंधित कोई भी समाचार समझ सकने की स्थिति में होते हैं।
     दूसरे सत्र में छात्रों को पढ़ने के लिये जो विषय सामाजिक समस्याएं पेश किया जाता है, वह भी इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है।


4.समाचारों का विशेष व्याकरण

टी.वी. चेनलों के समाचारों की भाषा की कुछ व्याकरणिक विशेषताएं हैं, जिन्हें मेरी पाठ्य-पुस्तक का प्रयोग करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिये। व्याकरणिक विशेषताओं से मेरा अर्थ उन क्रियापदों से है जिनका समाचारों में बहुधा प्रयोग होता है। इस लिये छात्रों को पहले से इन क्रियापदों का अभ्यास कराके उनका काम कहीं सरल किया जा सकता है। इस संदर्भ में मैंने उप्रोक्त दोनों विषयों के समाचारों का विश्लेषण किया है। तो पता चला है कि काल-भेद के बाद कर्मवाच्य सब से अधिक प्रचलित है। उल्लेखनीय है कि यह केवल टेलीविजन के ही नहीं, रेडियो तथा अख़बारों के समाचारों की विशेषता है। इसका कारण स्पष्ट है समाचारों में घटना, अर्थात् कर्म को कर्ता की अपेक्षा प्राथमिकता दी जाती है। हिंदू धर्म जैसे विषय से जुड़े समाचारों में घटनाएं सामाजिक समस्याओं की तुलना में अपेक्षाकृत कम होती हैं। इसके बावजूद यहां भी कर्मवाच्य सब से प्रचलित है। यहां इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।

  1. सनातन धर्म में त्रिदेव को खास महत्व दिया जाता है
  2.  इस बैठक में महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पेश किये जाने पर फ़ैसला लिया जाएगा।
  1. कई युवाओं को तबाह होने से बचाया जा सकता है।
  2. और आज शाम उसका दहन किया जाएगा।

कर्मवाच्य के बाद दूसरे नंबर पर आवश्यकता-बोधक क्रिया रूप हैं। आवश्यकता व्यक्त करने वाले शब्दों के अतिरिक्त भिन्न भिन्न व्याकरणिक रूप भी प्रचलित हैं, जिनकी विविधता का अनुमान निम्नलिखित उदाहरणों से लगाया जा सकता हैः

  1. आज दुनिया को बुद्ध के रास्ते पर चलने की ज़्यादा ज़रूरत है।
  2. अब शादी करना ज़रूरी नहीं होगा।
  3. इसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिये।
  4. मंगला को नौकरी छोड़नी पड़ी।
9.      होली खेलने को जाना है।
  1. साथ ही जनता के प्रतिनिधियों को हर तीन महीने में अपने काम का ब्योरा जनता को देना होगा

एक बात उल्लेखनीय है कि समाज से संबंधित समाचारों में आवश्यकता-बोधक रूपों की संख्या धर्म के समाचारों की तुलना में दोगुना अधिक है।
     तीसरा सब से ज़्यादा चालू क्रियापद कृदंत है। कृदंत के जिन रूपों द्वारा काल-भेद की रचना होती है, उनकी चर्चा मैं नहीं करता। मैं कृदंत के उन रूपों की बात कर रहा हूं जिनका प्रयोग विशेषण या क्रिया-विशेषण के रूप में होता हैः

  1. चलती गाड़ी में शराब पीनेवालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
  2. नौकरी करने के सपने को पूरा कर रही कंपनियों का प्रस्ताव अच्छा लगा।
  3. GMR द्वारा बनाया गया यह एयरपोर्ट अद्भुत है।
  4. एक लाख रुपये ख़र्च कर चुके दूल्हे के सारे अरमानों पर पानी फिर चुका था।
  5. केंद्र सरकार को उन सारी लक्ष्मण-रेखाओं को ध्यान में रखते हुए अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करना चाहिये।

धर्म के समाचारों में परिस्थिति-बोधक कृदंत विशेषणों का प्रयोग समाज के समाचारों की तुलना में पांच गुना ज़्यादा देखा गयाः

  1. पहले यह लाल पत्थर का बना हुआ था
  2. पूरा माहौल होली के रंग से रंगा हुआ है।

चौथा सब से अधिक पाया जानेवाला क्रियापद संभावनार्थ है, जो संभावना तथा इच्छा-बोधक हैः

  1. वह चाहती है कि संसद में ज़्यादा काम-काज हो
  2. सरकार अदालत में पूरी तैयारी के साथ जाए, ताकि उसे मुंह की न खानी पड़े
  3. इसी लिये जब आप चार धाम यात्रा पर आएं तो अपने साथ लाएं गर्म और ऊनी कपड़े।
  4. आप शादी न करें तो भी आप किसी के साथ एक घर में रह सकते हैं।



5. टी.वी भाषा के गुण और अवगुण

टी.वी. की भाषा की विशेषताओं में उसकी विशेष शैली प्रथम है। सुधीश पचौरी अपनी किताब दूरदर्शन विकास से बाज़ार तक में लिखते हैं कि टी.वी. की भाषा एकदम अलग और चित्रों की होती है और चित्रों की भाषा सर्वभौमिक होती है (1-105)। अर्थात टेलीविजन में हम समाचार पढ़ते नहीं, देखते-सुनते हैं। टी.वी. की भाषा में अर्थ और चित्र का संगम है। और अक्सर ऐसा होता है कि विद्यार्थियों को नया शब्द सुनकर शब्दकोश में उसका अर्थ ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ती। लिखित टेक्स्ट में ऐसे मौके शायद ही मिलेंगे।
     टी.वी. की भाषा की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसका उद्देश्य  जनसाधारण को संबोधित करना है। वह सरल और मितभाषी होनी चाहिये। जैसा कि हरिशचंद्र बर्णवाल अपनी किताब टेलीविजन की भाषा में लिखते हैं, यहां हिंदी भाषा की कदर वहीं तक है जिसे लोग आसानी से पचा लें।(2-26) बर्णवाल का कहना है कि टी.वी. की भाषा आम लोगों के बेहद करीब है।(2-24)
     टी.वी. के समाचार समसामयिक हैं और अपनी तरफ़ छात्रों का ध्यान खींच लेते हैं। समाचारों में पत्रकारों के द्वारा पहले से लिखित टीका-टिप्पणी, घटित घटना के स्थान पर से संवाददाता का सहज विवरण, और साक्षात्कार देनेवाले आम लोगों की बातें भी सम्मिलित हैं। इस तरह समाचारों में आधुनिक भाषा के विभिन्न पहलुओं का चित्रण होता है।
     यही नहीं, आज टेलीविजन भाषा का एक ऐसा स्रोत बना है जो स्वयं बोलचाल की भाषा ढालकर उसे आधुनिक रूप प्रदान करने लगा है। पचौरी का कहना है कि फ़िल्मों, टेलीफ़िल्मों, सीरियलों की भाषा एक नयी जनभाषा बनकर उभरी है।(1-108) मेरे विचार में फ़िल्में ही नहीं, अपितु समाचार, व्याख्या और सामाजिक बहस के कार्यक्रम भी आम लोगों की भाषा को प्रभावित करते हैं। इस लिये टेलीविजन पर गूंजनेवाली हिंदी, पाठ्य-पुस्तकों के लिये एक मूल्यवान स्रोत का काम दे सकती है।
     साथ ही साथ पाठ्य-पुस्तक के लिये सामग्री का चयन करते समय बड़ी सावधानी बरतनी चाहिये। बात यह है कि टी.वी. की भाषा में कुछ ऐसे कारक हैं जो उसके सकारात्मक पहलुओं को बेकार बना सकते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि टी.वी. में कार्यरत पत्रकार, संवाददाता, संपादक और वाचक कुछ ऐसी हिंदी बोलते हैं जिसकी नकल तो क्या, उससे दूर रहना बेहतर है। कभी-कभी रोचक समाचारों से इंकार करना पड़ता है, सिर्फ़ इस लिये कि उनकी भाषा भ्रष्ट और विकलांग है।
     भाषा की कोटि को लेकर प्रमुख समस्याएं ये हैं।
1. भाषण-शैली। बात करने का अस्पष्ट तरीका। बोलनेवालों का कमाल होना चाहिये।
2. बात करने की तेज़ गति। जिन लोगों के लिये हिंदी मातृभाषा है, वे जल्दी बात करनेवाले वाचकों की बातें समझ पाएंगे ही। लेकिन हिंदी का अध्ययन आरंभ करनेवाले छात्रों के लिये ऐसी बातें अलंघ्य बाधा बन जाती हैं। दस-पंद्रह सेकंड की बातें छात्रों को एक बहुत लंबा शब्द लगती हैं।
3. बहुत से संपादक समाचार लिखते समय वाक्य के संक्षिप्त होने के सिद्धांत के पाबंद नहीं रहते। विदेशी छात्रों की तो न पूछिये, हिंदी भाषियों के लिये भी लंबे वाक्य परेशानी का कारण बनते हैं। पचौरी लिखते हैं कि लंबे वाक्य को सुनते हुए श्रोता कर्ता और कर्म को भूलता जाता है। ध्यान से सुनने के लिये दिमाग पर अतिरिक्त ज़ोर देना पड़ता है।(1-113)
4. अक्सर बिगड़ी हुई शैली का कारण यह होता है कि अधिक्तर समाचार हिंदी में नहीं लिखे जाते हैं, अंग्रेज़ी से अनुवाद किये जाते हैं। और यह बात भारत में भी कड़ी आलोचना का निशाना बनी  हुई  है। पचौरी लिखते हैं कि दूरदर्शन के समाचारों की भाषा हिंदी में अनूदित अंग्रेज़ी होती है (1-112) और यह भाषा भ्रष्ट होती है।
     मैं काफ़ी बरसों से ज़ी टी.वी. के कार्यक्रम देखता आया हूं। यह सच है कि कई साल पहले ज़ी टी.वी. के समाचारों की शैली ही नहीं, शब्दावली भी अंग्रेज़ी की थी। तब अंग्रेज़ी का प्रकोप इस मात्रा में बढ़ गया था कि लगता था कि कारक चिह्न को छोड़कर वाक्यों में हिंदी का नामो-निशान तक नहीं रहा। हां यह तो मानना पड़ेगा कि आजकल हालत सुधर गयी है। लगता है ज़ी टी.वी.वाले आलोचना पर ध्यान देते हैं। फिर भी मेरे विचार में एन.डी.टी.वी., या इंडिया टी.वी. जैसे चैनलों की हिंदी ज़ी टी.वी. से कहीं अच्छी है।
5. विभिन्न चेनलों के शब्द-भंडार में भी बड़ा अंतर है। आज तक पर समानार्थ शब्दों की संख्या असीमित है। राजस्थान पत्रिका का चेनल शुद्ध हिंदी बोलता है और प्रायः संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करता है, जबकि  ज़ी टी.वी. में अरबी-फ़ारसी की शब्दावली प्रचलित है।
     शैली और शब्दों का प्रयोग समाचारों के विषय पर निर्भर करता है। पचौरी लिखते हैं कि उच्च दार्शनिक विचारों को व्यक्त करने के लिये रोज़मर्रा की शब्दावली असमर्थ होती है। इस लिये हिंदी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाएं भी संस्कृत की ओर झुकती रही हैं, तथा उर्दू, फ़ारसी और अरबी की ओर झुकती हैं।(1-106) मेरा लक्ष्य हिंदी चेनलों की भाषा का वर्गीकरण करना नहीं, बल्कि पाठ्य पुस्तक तैयार करने में सामने आनेवाली कठिनाइयों को दिखाना है।
6. साक्षात्कार की भाषा। सड़कों पर लिये जानेवाले साक्षात्कार बहुत काम के लगते हैं। इनके माध्यम से बोलचाल की भाषा में स्वाभाविक वार्तालाप दिखाने का अच्छा मौका मिलता है। लेकिन इसमें भी सावधान रहना चाहिये। ऐसे वार्तालाप तभी लाभदायक हो सकते हैं जब साक्षात्कृत लोग सुशिक्षित हों और अभिव्यक्ति की क्षमता रखते हों। नहीं तो ऐसे वार्तालाप छात्रों के लिये उलझन का कारण बन सकते हैं। इस लिये  साक्षात्कार का चयन भी एक संवेदनशील बिंदु है।

टी.वी. के समाचारों से पढ़ाई के लिये सामग्री चुनने में जितनी भी मुश्किलें सामने क्यों न आती हों, भाषा के दूसरे स्रोतों की तुलना में उन समाचारों का एक बड़ा लाभ होता है। उनके माध्यम से मानक साहित्यिक और बोलचाल की भाषा का सहजीवन और हिंदी की आधुनिक परिस्थिति का विस्तृत चित्र दर्शाना संभव हो जाता है।






संदर्भ पुस्तकें

1. सुधीश पचौरी. 2000ई. दूरदर्शन। विकास से बाज़ार तक, प्रवीन प्रकाशन, नई दिल्ली
2. हरीश चंद्र बर्णवाल. 2011ई. टेलीविजन की भाषा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली







हिंदी शिक्षण को लेकर गेनादी जी की दो अन्य किताबें








Hebrew Hindi Phrase Book





           कुछ तसवीरें भारत की शैक्षिक यात्राओं से



















प्रसिद्ध हिंदी लेखक दिवंगत राजेंद्र यादव के साथ गेनादी श्लोम्पेर तथा उनके छात्र






... और अब इज़रायल में हिंदी की स्थिति पर  डॉ. गेनादी श्लोम्पेर का एक 

जानकारी और विश्लेषण भरा आलेख





इज़राइल में हिंदी: संस्कृति सन्दर्भ 







क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से इज़राइल एक छोटा सा देश है। इज़राइलवासी स्वयं इसे ‘मानचित्र पर बिंदु’ कहा करते हैं। पर यदि इस छोटे से देश की सड़कों पर घूमें, तो उतनी सारी भाषाएं और बोलियां सुनने में आ जाएंगी, जितनी कि अमरीका, रूस या भारत सरीख़े बहुजातीय और बहुभाषीय देशों में ही गूंजती हैं। और ये भाषाएं विदेशी यात्रियों की नहीं, वरन् इज़राइल के उन नागरिकों की हैं जो यहाँ विश्व के कोने कोने से आ बसे हैं।

यहां की 70 लाख वाली आबादी में भारत-मूल के लगभग 70 हज़ार लोग रहते हैं। उन में से अधिकांश महाराष्ट्र से आये हुए हैं और मराठी उन की मातृभाषा है। अश्दोद, दीमोना, राम्ला जैसे नगरों में मराठी भाषियों की संख्या काफ़ी बड़ी है। वहां जगह-जगह पर हिंदुस्तानी ढंग के रेस्तरां, दुकानें पायी जाती हैं, जहां भारतीय खाना मिलता है, भारतीय फ़िल्मों और संगीत के सी०डी० बिकते हैं। भारत-मूल का एक छोटा सा समूह मलायलम भी बोलता है, क्योंकि वह यहां पर कोचीन (केरल) से स्थानांतरित  हुआ था।



पर ऐसा हुआ है कि भारतीय समुदाय में भारत की सब से बड़ी भाषा, हिंदी का प्रतिनिधित्व कोई भी नहीं करता। ऐसी बात तो नहीं है कि भारत मूल के इज़राइल वासियों में कोई भी हिंदी नहीं बोलता। वृद्ध और अधेड़ उम्र के लोग गुज़ारे लायक हिंदी बोल लेते हैं और हिंदी फ़िल्में आसानी से समझ पाते हैं। लेकिन भाषा का अध्यापन करने, उसका प्रचार-प्रसार करने के लिये उन की जानकारी स्पष्ट रूप से पर्याप्त नहीं है।

यह स्वाभाविक बात है कि भारत के भूतपूर्व नागरिकों ने भारत से अपने सांस्कृतिक संपर्क बनाये रखे हुए हैं। लेकिन इज़राइली समाज में भारत के प्रति रुचि की जड़ें कहीं ज़्यादा गहरी और पुरानी हैं। हमारे देश की स्थापना के बीस से ज़्यादा वर्ष पहले, 1926 में, यरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में अफ़्रीकी-एशियाई अध्ययन के संस्थान का उद्घाटन किया गया। शुरुआत में इस का शोधकार्य अरब देशों की परिस्थितियों पर केंद्रित था, लेकिन समय के साथ साथ विद्वानों का ध्यान पश्चिमी एशिया और पूर्वी एशिया के देशों की ओर भी गया।



दुनिया में भारत को चमत्कारों का देश माना जाता है। इसी विचार ने इज़राइल के नये विद्वानों को भी प्राचीन भारत की समृद्ध संस्कृति को ढूंढने और समझने के लिये प्रेरित किया। जिन विद्वानों ने इज़राइल में भारत-विद्या की नींव रखी थी और इस को आगे बढ़ाया, उनमें प्रॉ.डेविड शुल्मन, प्रॉ.शऊल मिग्रोन और प्रॉ.व्लादीमीर सिरकिन प्रमुख हैं। काफ़ी दिनों तक उन की खोज का विषय भारत के धर्म-दर्शन, प्राचीन साहित्य और प्राचीन भाषाएं ही रहा। मगर विद्यार्थियों की रुचियों को देखकर और हमारे दोनों देशों के बीच राजनैतिक संबंधों की स्थापना के पश्चात वे मान गये कि भारतीय संस्कृति का अध्ययन करते हुए उसके इतिहास और लोगों की स्थिति की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। तब से भारतीय विभाग में भारत से जुड़ी हुई नयी-नयी बातों का पठन-पाठन प्रारंभ हुआ। पाठ्यक्रम में संस्कृत के अतिरिक्त तामिल, तेलुगू, तिब्बती भाषाओं को सम्मिलित किया गया। हिंदी की पढ़ाई प्रशिक्षित अध्यापक के अभाव के कारण कुछ समय के लिये टाल दी गयी और उसकी बारी 1994 में, मेरे इज़राइल में देशांतरवास के बाद ही आयी। मैंने हिंदी-उर्दू भाषाओं के अध्यापन का प्रशिक्षण  ताश्क़ंद विश्वविद्यालय में प्राप्त किया था, और कोई बीस साल से हिंदी-उर्दू पढ़ाने में व्यस्त रहा। 1996 में मुझे यरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय के भारतीय विभाग में हिंदी के अध्यापक के पद पर नियुक्त किया गया। विद्यार्थियों में हिंदी की बढ़ती हुई मांग को लेकर 2001 में तेल अवीव विश्वविद्यालय में भी इस भाषा को सिखाने का निर्णय लिया गया, और मुझे वहां भी पूर्वी एशिया के विभाग में हिंदी पढ़ाने के लिये आमंत्रित किया गया। हिंदी के कोर्स बहुत ही सफल रहे, जिसका अनुमान इस बात से किया जा सकता है कि हर वर्ष दोनों विश्वविद्यालयों में करीब चालीस नये-नये छात्र आ जाते हैं।



हिंदी भाषा का पाठ्यक्रम यहां दो वर्षों का है। प्रथम वर्ष में विद्यार्थियों को लिखने, पढ़ने और बोलने का अभ्यास दिया जाता है। एक वर्ष के अंदर वे हिंदी व्याकरण के आधारभूत नियमों को पढ़ लेते हैं और प्रतिदिन की आवश्यकता के विषयों पर बात-चीत करना सीख लेते हैं। एक साल की पढ़ाई के बाद छुट्टियों के समय जो विद्यार्थी भारत की यात्रा पर जाते हैं, वे अपनी प्राथमिक जानकारी का प्रयोग कर के बहुत ख़ुश होते हैं। हां, हिंदी जैसी भाषा गहराई से सीख लेने के लिये दो वर्ष अवश्य पर्याप्त नहीं हैं। इस लिये दूसरे वर्ष के पाठ्यक्रम को मैंने कुछ ऐसी सामग्री पर आधारित किया है, जिस के माध्यम से विद्यार्थी व्याकरण के सब से महत्त्वपूर्ण नियमों को अपना कर शब्दकोश की सहायता से हिंदी में कोई भी किताब पढ़ सकें। दूसरे वर्ष के अंत में विद्यार्थियों को इस स्तर पर तैयार किया जाता है कि वे रामधारी सिंह दिनकर जैसे लेखक की रचनाएं पढ़ सकें। कोश और व्याकरण की सहायता से वे अनुवाद करते हैं और जहां कठिनाई होती है, मैं उनकी मदद करता हूं।

आधारभूत स्तर की पाठ्य-पुस्तकों की कमी नहीं है। लेकिन उनमें कोई न कोई अवगुण ज़रूर पाया जाता है। उनमें या तो सामग्री के चयन और प्रस्तुतीकरण में सतहीपन है, या उलट, व्याकरण के नियमों को ही भाषा समझ कर उनपर बल दिया जाता है। तब मैंने अपने अनुभव पर आधारित एक ऐसी पाठ्य-पुस्तक लिखने की चेष्टा की जिसमें व्याकरण के संग जीवंत व सरल भाषा प्रस्तुत की जाए और जो पढ़ने में रोचक हो और उसमें भारत के बारे में विविध जानकारी भी मिले। फिर मेरा इरादा था कि विद्यार्थी यह पुस्तक अपनी मातृभाषा, यानि कि हिब्रू भाषा में पढ़ें। सन् 2000 तक मैंने यह कार्य पूर्ण किया और अब मेरे पास दो साल की पढ़ाई के लिये पर्याप्त सामग्री है।

भाषा को अपनाने में मौखिक अभ्यास कुछ कम आवश्यक नहीं हैं। बोल-चाल की भाषा सीखने और हिंदी में बात करने की क्षमता बढ़ाने के लिये मैं नाटकों, फ़िल्मों और गानों का भी प्रयोग करता हूं। हां, आजकल बहुत सी फ़िल्मों की भाषा शुद्ध नहीं है और अंग्रेज़ी से प्रभावित है, मगर थोड़ा सा प्रयत्न कर हमें कुछ नयी और कुछ पुरानी फ़िल्में मिलीं जिनके पात्र अच्छी मानक हिंदी बोलते हैं। गानों की तो कुछ न पूछिये। इज़राइल में आपको शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो हिंदी गाने नापसंद करता हो। मेरे विद्यार्थी लगभग हर पाठ में कोई न कोई नया गाना सीख लेते हैं। संगीत के आनंद के अलावा गानों से बड़ा लाभ होता है। विद्यार्थी तनिक भी कोशिश किये बिना शब्द-भंडार बढ़ाते हैं और सही उच्चारण का अभ्यास पाते हैं।जो विद्यार्थी हिंदी आगे सीखना चाहते हैं, वे छात्रवृत्तियां पा कर केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा में अध्ययन के लिए जाते हैं।



इस सिलसिले में एक और बात उल्लेखनीय है। सन् 2000 से लेकर तेल-अवीव विश्वविद्यालय में पढ़ाई के हर वर्ष के अंत में ‘हिंदी समारोहों’ का आयोजन किया जाता रहा है, जिन में भाग लेने के लिये भारत के और हिंदी के सैंकड़ों प्रेमी आते हैं। 10 जनवरी 2006 और 16 जनवरी 2007 को यहां ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस’ बड़े धूम-धाम से मनाया गया। विद्यार्थी हिंदी गाने गाते हैं, नाटकों का मंचन करते हैं, हिंदी के बारे में विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं, कविताएं सुनाते हैं। बाद में भारतीय नाच-गाने का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है और दर्शक ज़ोरदार तालियों से कलाकारों का स्वागत करते हैं। भारत के राजदूतावास और विशेष कर नये राजदूत श्री अरुण कुमार सिंह की सहायता से ऐसे समारोह एक शुभ परंपरा बन गये हैं, जो भारत और उस की राजभाषा के प्रति इज़राइल वासियों की रुचि और प्रेम का प्रदर्शन करते हैं।



हिंदी सीखने की इच्छा उन बहुत से लोगों को भी होती है जो विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ते। हाल ही में मैंने जिस हिब्रू-हिंदी बातचीत की किताब तैयार की, वह हाथों हाथ बिकने लगी है। यहां हिंदी में ज़ी टी. वी के प्रोग्राम प्रसारित किये जाते हैं जो बड़े लोकप्रिय हैं। यहां के टेलीवीजन पर और सिनेमाघरों में हिंदी फ़िल्मों का प्रदर्शन और रेडियो पर हिंदी गानों का प्रसारण  एक साधारण सी बात बन गया है। इज़राइल के बहुत से लोग यह अच्छी तरह समझने लगे हैं  कि हिंदी के माध्यम से भारत की सभ्यता के द्वार खुल सकते हैं।



इसी लेख का पीडीऍफ़ रूप नीचे दिए गए लिंक पर ऑनलाइन देखें


इज़राइल में हिंदी: संस्कृति सन्दर्भ


 



श्री गेनादी और उनके छात्रों द्वारा इज़रायल में आयोजित 

अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस समारोह 









गेनादी श्लोम्पेर: अकादमिक वृत्त

एक नज़र में 

 

Curriculum Vitae



First name
Genady
Second name
Shlomper
Born
Tashkent, USSR. 1954
Residential address
Ha-Arbel street 7, apartment 3, Beit-Shemesh, 9958515, Israel
Official address
Department of East Asian Studies, Tel-Aviv University, Ramat Aviv, Tel Aviv, Israel
Telephone
+972-50-4244575 (Mobile)
Webpage
www.tau.ac.il/~genadys
Youtube
AcharyaSG
E-mail
genady.shlomper@gmail.com





Education



1971-1976. Tashkent University. Oriental faculty. Department of Indian Philology. MA in Indian literature and teaching Hindi, Urdu and Panjabi languages. Diploma “Essays by Gurbakhsh Singh (Prit Lari)”.



1975. One year course in Panjabi language and literature at the Panjab University in Chandigarh, India.



2002. The Hebrew University in Jerusalem. The faculty of Humanities. Institute of Asian and African Studies. Department of India, Iran and Armenia. PhD “Modality in Hindi”.





Employment history



19771982. Translator at the Urdu Department, Foreign Broadcasts, Radio Tashkent.

19821985. Teacher of Urdu language, special language school 156, Tashkent.

19821984. Editor of the magazine “Soviet Uzbekistan” in Urdu language, Tashkent.



19861991. Calligrapher in Urdu language, Publishing Houses “Raduga” and “Progress”, Moscow.

19851994. Teacher of Hindi language, Boarding school 19, Moscow.

.

1996 – 2008 Hindi language instructor, Institute of Asian and African Studies, Department of India, Iran and Armenia, at the Hebrew University in Jerusalem, Israel.

2000 till present - Hindi language instructor, Department of East Asian Studies, Tel-Aviv University.



Publications



1977 – 2014. Translated and published into Russian in different magazines and newspapers works by Gurbakhsh Singh (Preet Ladi), Navtej Singh, Nanak Singh, Sujan Singh, Mohan Bhandari, Ajit Kaur (from Panjabi), Jitendra, Shatrughna Kumar, Rajendra Yadav (from Hindi), Shauqat Siddiqi (from Urdu).



2001. “A Basic Course in Modern Hindi for Hebrew-speaking students”. Jerusalem. “Academon” Publishing House. 194 pages

2003. “Hebrew – Hindi Phrase Book”. Tel-Aviv, Israel. “Filmotip”. 124 pages

2005. “Modality in Hindi”. Muenchen, Germany. “LINCOM-EUROPA”. 175 pages.

2007. “Hebrew – Hindi Phrase Book”. Rosh Ha’ayin, Israel. “Prolog” Publishing House. 190 pages.

2007. " israel men hindi " (Hindi in Israel). In “Gagananchal” Special issue on the 8th World Hindi Conference in New York. Delhi.

2009. “israel men hindi – sanskriti sandarbh” (Hindi in Israel – the Cultural Aspect). In “Vishva hindi patrika”, pp. 80-83, World Hindi Secretariat, Mauritius.

2010. “Hebrew – Hindi Phrase Book”. Jerusalem, Israel. “Zack” Publishing House. 324 pages.

2012.Hindi ke ti-vi chenalon ke smachaaron par aadhaarit pathya pustak” (Preparing a teaching book based on T.V. News Channels”. In “Sangoshthi samagr. Videshi bhasha ke roop men Hindi shikshan”.(Conference proceedings. Learning Hindi as a foreign language, Valladolid, Spain 15-17 March, 2012), pp.38-42, Ministry of External Affairs, Delhi, India.

2012. “israel men hindi sahitya ka adhyayan-adhyapan – prathamik pag” (Study of the Hindi literature in Israel – first steps). In “Vishva hindi patrika”, pp. 38-41, World Hindi Secretariat, Mauritius.

2013.chaar saptaah kaa hindii path” (Four weeks long Hindi lesson).  14.01.2013 http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/hindi_diwas/chaar_saptah.htm

2013. “hindii gyaan-vigyaan kaa maadhyam ban saktii hai” (Hindi can become a language of science). Interview to the literary monthly magazine Garbhnal. May 2013, pp. 20-23.

2013. “Halleluiah” . A poem of an Israeli poetess Shimrit Or, translated into Hindi. Garbhnal, June, page 44.

2013. "יש דברים רבים בחלד...", "ברוך הבא" (“There are many things in the world…”, “Welcome”) – Songs by Hava Albershtein translated from Hebrew to Hindi. Literary monthly magazine Garbhnal. September 2013, p. 38.

2013. "יש דברים שרציתי לומר..." (There are things I wanted to say…) A song by Yankele Rotblit, translated from Hebrew to Hindi. Literary monthly magazine Garbhnal. October, p. 42.

2013. The Role of the Internet in Hindi Teaching. (Conference proceedings. Language, Literature and Technology). International Hindi Conference, 12 – 13 December 2013, pp.52 - 59, Shivaji University, Kolhapur, India.

2014. A course in modern Hindi through TV for advanced students. Hinduism. LINCOM Language Coursebooks. Muenchen, Germany. “LINCOM-EUROPA”. 200 pages.



“Hindi self-teaching book for Hebrew speakers” (In progress)







Papers



2008. “Specific Problems in Teaching Hindi to Hebrew Speaking Students”. (in Hebrew) The 35th Annual Conference of Israel Association for Applied Linguistics. 22 October, Tel-Aviv University.

2009. “Preparing Books for Teaching Hindi – a University Course”. (in Hebrew) The First Israeli Meeting on Language, Culture and Society in Asia, Haifa University, 11-12 January.

2011. “Problems in Teaching Hindi and Ways to Solve Them”(In Hindi). UK Regional Hindi Conference, Birmingham, 24-26 June.

2012. “Hindi Teaching Book Based on Hindi T.V. News Channels” (In Hindi). European Hindi Conference, Valladolid, Spain, 15-17 March.



Books and courses printed in Tel Aviv University and the Hebrew University in Jerusalem for internal use only



1997. “Raajaa kii aaegii baaraat” – film script with grammatical commentary, exercises and glossary. The Hebrew University.

2000. “Hindi for the first year students”. Tel-Aviv University.

2000. “Hindi – Hebrew, Hebrew – Hindi concise dictionary”. Tel-Aviv University.

2001. “Hindi for the second year students”. Tel-Aviv University.

2002. “Mirch-masaalaa” – film script with exercises and glossary. Tel-Aviv University.

2008. “Learn to understand radio news in Hindi (Elections in India)” – a course for advanced students. The Hebrew University.

2009. “Learn to read newspapers in Hindi” – a course for advanced students. Tel-Aviv University.

2010. “TV news in Hindi” (Part 1 – “Hinduism”, Part 2 – “Social problems”) – a course for advanced students. Tel-Aviv University.

2012. “Hindi literature. Story writers”. – a course for M.A. students.



Academic interests



Applied linguistics. Hindi teaching. Hindi teaching books.





Awards



2007. Honored by the Eighth World Hindi Conference in New York. 12-14 July

2010. Honored by the International Hindi Conference, organized by AKSHARAM, New Delhi, 6-7 February. 





गेनादी जी से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण Yutube लिंक 













टिप्पणियाँ

  1. उत्तम जानकारी से भरा हुआ है यह पन्ना।

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  2. धन्यवाद....! आशा है आप इसे अग्रसारित और सांझा करके इस जानकारी को अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाने के काम में भी योगदान देंगी...!

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