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मेला इस बार





खरामा-खरामा दिल्ली में लगने वाला भारत का विश्व पुस्तक मेला अब दो साल की बजाय सालाना हो गया है। पर अब यह कितना वैश्विक है और कितना लोकल,यह आप और हमारे देखने की बात है। इस बरस के मेले में परदेस के नाम पर यूरोपियन यूनियन के कुछ स्टाल ही थे। हमारा तो अपना अंतर्-विश्व ही गायब था, इस अर्थ में कि यह मेला मोटे तौर पर हिंदी-अंग्रेजी का मेला बन कर रह गया। भारत की सूचीबद्ध शेष भाषाएं लगभग अनुपस्थित-सी थी। अरे यारो, और कुछ नहीं तो उनकी एक झांकी ही पेश कर दिया करो! और क्या कोई मेला ऐसा भी होगा जिसकी थीम भारत या विश्व की लुप्त होती भाषाएं होंगी? या कोई मेला मातृ-भाषाओं के महत्व पर केंद्रित होगा? मेले के अंतर्गत या विभिन्न बुकस्टॉलों पर होने वाले कार्यक्रम भी प्रश्नास्पद हैं। इस अर्थ में कि मेले के शोरशराबे में वे कौन सा प्रभाव छोड़ रहे होंगे? कहीं-कहीं सुनने वाला एक नहीं और नामीगिरामी लोग मग्न होकर बोले जा रहे हैं! यूं कहने-सुनने में यह बड़ा प्रभावशाली आयाम जैसा लगता है मेले का। और यह क्या! मेले में हिंदी की किताब सस्ती और खाना महंगा; और जिसकी गुणवत्ता का भरोसा भी नहीं! बहरहाल, आखिरी दो-दिन की भीड़ मन हरषाने वाली थी। कुछ बरस पहले, एक अनौपचारिक बातचीत में, मेले की आयोजक संस्था नेशनल बुक ट्रस्ट के एक बड़े अधिकारी बता रहे थे कि उनके पास कोई डाटा नहीं कि पुस्तक-उद्योग का कुल वार्षिक टर्न-ओवर कितना है? तब वे यह भी क्या बता पाते कि किसी और इस मेले में कितने का बिजनेस हुआ? आज कोई बता पायेगा या नहीं , यह जांच या अनुमान का विषय है।


बहरहाल, पुस्तकी-मनुख के लिए हज़ारों क्या लाखों किताबों के बीच खुद को पाना एक दिव्य अनुभव है। ये मेला इस अर्थ में भी कि बिछड़े यार भी मिल जाते हैं, यहाँ साहित्यिक-जात के। पर मेले में लगातार जाने वालों को खलता है कि मेले में नए विचार कब आएंगे! अपनी प्रस्तुति में यह एक ही ढर्रे पर लम्बे समय से चला आ रहा है! कुछ तो रहम करो मेरी सरकार!

पेश है, मेले को लेकर कुछ अपेक्षाकृत नए पाठकों या मेलाचारियों की प्रतिक्रियाएं। हमारी समझ का विस्तार करती अपने नयेपन और अनुभव के साथ। हम इन लेखकों, प्रचंड प्रवीर, आदित्य विक्रम सिंह, सपना, दिनेश और ब्रजपाल के आभारी हैं। हम घुमक्कड़ पत्रकार प्रदीपिका सारस्वत के भी मश्कूर हैं, जिनकी 'सत्याग्रह'में छपी बेहद दिलचस्प और पैनी पोस्ट हम यहाँ इस्तेमाल कर रहे हैं। इसकी जानकारी और अन्य सुविधाएं प्रदान करने के लिए आदित्य विक्रम  सिंह का पुनः धन्यवाद। पोस्ट का मूल लिंक अंत में दे दिया गया है।



प्रचंड प्रवीर, चर्चित नए कथाकार और सिनेमा-पारखी




सौन्दर्य-बोध की कमी
पुस्तक मेला जो बंगाल से निकल कर अब समूचे विश्व में साहित्य का एक अनिवार्य चलन बन चुका है, उसी तरह से जिस तरह से घरों में बंगला, मिठाईयों में रसगुल्ला। दिल्ली के प्रगति मैदान में लगता विश्व पुस्तक मेला दरअसल पुस्तक मेला कम और मेला अधिक है। यहीं जो व्यापार मेला लगता है, वहाँ इससे ज्यादा भीड़ इकट्ठी होती है। कभी कभी यह लगता है कि दिल्ली की सामूहिक चेतना किसी मीना बाज़ार जैसी खुली जगह पर जा कर कुछ खाने-पीने में ज्यादा दिलचस्पी लेती है। यही भीड़ इंडिया गेट में देखने को मिलती है, क्योंकि दिल्ली के पास मुफ्त खुली जगह लगभग न के बराबर है। प्रगति मैदान के बजाय अगर यह मेला किसी मॉलनुमा बिल्डिंग में लगे, तो मेरे ख़याल से भीड़ कम आएगी।

बहरहाल, दूर-दराज़ से बहुत से लोग इस मेले में भाग लेने आते हैं। बहुत से छोटे-मोटे प्रकाशक और वितरक। मजेदार बात है कि हमेशा से इस मेले का एक छोटा सा हिस्सा हिन्दी पुस्तकों के लिये अलग से रहा है। एक हॉल विदेशी मेहमान प्रकाशकों के लिये और शेष सारे के सारे अंग्रेजी के प्रकाशकों के लिये। हिन्दी के हॉल में दूर के प्रदेशों से हिन्दी लेखक और अकादमिक व्याख्याता वगैरह आते हैं। कभी कभी सोचता हूँ कि हिन्दी साहित्य के पढ़ाये जाने से हिन्दी की दुर्दशा हुयी है या उसके राजनीतिकरण से या सरकारी अनुदान से। कुछ मित्रों का मानना है कि हिन्दी की कोई दुर्दशा हुयी ही नहीं है। बड़ी संख्या में पाठक हैं, और उनसे ज्यादा लेखक हैं और उनसे भी ज्यादा मूर्धन्य आलोचक हैं।

मैं मानता हूँ ४० करोड़ हिन्दीभाषी लोग के विशाल देश में जहाँ ‘न्याय’ हिन्दी में नहीं मिलता, विधि किसी इतर भाषा में है, हिन्दी क्षेत्रों में गणित विज्ञान आदि हिन्दी में नहीं पढ़ाये जाते, सबसे बड़ी बात जहाँ के धनी और अभिजात्य वर्ग अपनी मातृभाषा में बोलने में शर्म महसूस करते हों, वह पिछड़ी नहीं तो क्या है? अंग्रेजी के स्टालों में जा कर देखिये, सुंदर स्टॉल हैं। अब यह भी कहा जा सकता है कि उनके पास धन बल हैं। पर ऐसा नहीं है। हिन्दी के एक स्टाल पर महाराष्ट्र से आये सज्जन ने बताया कि वहाँ स्टाल का नाम भी कलात्मक ढंग से लिखा जाता है। सुंदर सजाया जाता है। लोग में उत्साह होता है।

मेरे हिसाब से यही बहुत बड़ा अंतर है। हिन्दी साहित्य से चित्रकला, संगीत, स्थापत्य को बेदखल कर दिया गया है। पत्रिकाओं में जो चित्र नज़र आते हैं, वह सब किसी यूरोपी चित्रकला मूवमेंट की तर्ज़ पर होंगे। सभी पिकासों की संतान बन जाएँगे या सभी डिकंस्ट्रक्शन जैसा कुछ बनाने लगेंगे। रेखाचित्र में वह सजीवता नहीं रहेगी। पुस्तकों के कवर देखिये। वयोवृद्ध लेखकों की श्वेत-श्याम तस्वीर, या सादे रंग के ऊपर मेरी प्रिय कविताएँ, मेरी प्रिय कहानियाँ जैसे शीर्षक। योग दर्शन में जीव का लक्ष्य ‘चित्तवृत्ति निरोध’ के लिये तो ‘अहंमम’ भाव का लोप अपेक्षित है। यह हमारे प्रकाशकों, लेखकों, हिन्दी की छोटी सी साहित्यिक दुनिया में नितांत शून्य है।

ऐसा कहते हुये लोग मिल जाते हैं कि फलाना प्रकाशक का ‘सौन्दर्यबोध’ कमजोर है। दु:ख की बात है, हम सब को न रंग की समझ है न रेखा की, न चित्र की। इसीलिये साहित्य की भी नहीं ही है। यह स्वीकार करना कठिन है, पर इस पर विचारना कठिन न होगा।

 आदित्य विक्रम सिंह, सिक्किम विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन का अनुभव और फेसबुक रसिया  



   पहला दिन

किसी भी मेले का पहला दिन बहुत औपचारिक होता है । उद्घाटन परिचय सम्मान, इसी में पहले दिन की इति होती है

मैं भी पुस्तक मेले में पहले दिन ही पहुँच गया । अन्यथा मेले में तो आदमी पहले दिन जाने से बचता है ।

कई वर्षों के उपरांत विश्व पुस्तक मेले में जाने का कार्यक्रम बना था तो एक उत्साह था ही । और दिमाग़ में विगत वर्षों की छवियाँ भी ।प्रगति मैदान मेट्रो पर भीड़ का ना मिलना इस बात का संकेत था की मेले का ख़ुमार अभी चढ़ना बाक़ी है ।

मेले के अंदर भी पहले दिन का असर साफ़ लगा । बहुत से स्टाल अभी लग रहे थे । और जो लग गए थे वे साज सज्जा में मशगूल थे । सर्वप्रथम अंतिक़ा प्रकाशन पर जाना हुआ । गया था तो बस एक किताब देवव्रत भीष्म लेने । इस किताब का इंतज़ार बहुत दिन से था क्यूँकि भीष्म मिथकीय चरित्रों में अतिप्रिय चरित्र हैं । और छंद बद्ध महाकाव्य पढ़ने का अपना एक अलग आनंद हैं । पर वहाँ जाकर ढेर सारी किताबें बैग में संकलित हुई । कुछ मुहब्बत में कुछ ...!

कुछ प्रकाशनों  पर पुस्तक के विषय में पता करने पर पहले दिन का हवाला मिला कि अभी तक फलां  पुस्तक नहीं आयी है | महत्वपूर्ण प्रकाशकों से छपी किताबें तो आजकल सर्वत्र उपलब्ध हैं, ऑफ़्लाइन भी और ऑनलाइन भी।   परंतु जिन प्रकाशकों का ऑनलाइन कोई सम्पर्क नहीं या बहुत मुश्किल है, उनसे मिलना, उनका पुस्तक मेले में होना सबसे सुखद पक्ष है पुस्तक मेले का । मसलन राज्य सरकारों द्वारा प्रकाशित किताबें, बिहार हिंदी अकादमी और उत्तर प्रदेश हिंदी अकादमी से छपी ढेर सारी महत्वपूर्ण किताबें अप्राप्य हैं बाहर । एक नज़ारा भी दिखा इस का , युवा कवि कुमार अनुपम जब मिले तो बिहार अकादमी की पुरानी किताबों के कई झोले लिए भारी हो रहे थे। 

कुछ चीज़ें नयी देखने को भी मिली, हो सकता हैं पुरानी ही हों, पर मैं कई साल बाद गया था; मसलन जिन बाबाओं से सुबह टीवी देखना बंद हो गया था , और कुछ बाबा ख़ुद जेल में बंद थे , उन सबका साहित्य वहाँ और साहित्य से मुक़ाबला लेता दिख रहा था ।

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए भी विशेष सामग्री के रूप में सिर्फ़ किताबें ही नहीं थी, वरन, कोचिंगो के मेंटर भी मौ जूद थे और वह भी काफ़ी शानो-शौक़त से।   किताबों से भाग्य ना बदल रहा हो तो भाग्य बदलने वाले भी मौजूद थे । बिलकुल आधुनिक कलेवर में । लगा कि ज्योतिषी में भी ऐम बी ऐ होता होगा ।

लेखकों से बातचीत के लिए एक मंच का भी निर्माण किया गया था । लेखकों के लिए जो मंच बना था वो शानदार था, पर उस समय उस पर कोई टेम्पो-छाप शायरी सुना रहा था । बाद में सुना की कुछ अच्छे कार्यक्रम भी हुए ।

मित्रों से मुलाक़ात होना मेले का एक बड़ा लाभ है, और संयोग था की कुछ बहुत पुराने मित्र भी मिले । पहले दिन का हवाला देते हुए मैं भी कह रहा की मैंने और कुछ नहीं देखा।



सपना, शोधार्थी, पंजाब विश्वविद्यालय




ज्ञान और मस्ती का संगम  

हमारे जीवन में किताबों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। विश्व के प्रत्येक कोने में किताबें छापी जाती हैं। प्रत्येक देश की किताबें वहां की सभ्यता, संस्कृति और मानव जीवन के विकास क्रम को समझने में महती भूमिका निभाती हैं। किसी भी समाज के स्वरूप को समझने और विकासवादी दृष्टिकोण उत्पन्न करने के लिए विभिन्न विषयों और भाषाओं के साहित्य का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यही कारण रहा है कि विश्व के चिंतनशील व्यक्तियों ने विश्व साहित्य को एक मंच पर लाने का विचार बनाया। भारत में विश्व साहित्य को एक मंच पर लाने का कार्य विश्व पुस्तक मेला करता है। भारत की राजधानी दिल्ली में प्रगति मैदान में 1972 से लेकर अब तक 26 विश्व पुस्तक मेलों का आयोजन हो चुका है। 2018 का विश्व पुस्तक मेला कई कारणों से अलग रहा। इस बार विश्व पुस्तक मेले का मूल विषय पर्यावरण रहा। वैश्विक स्तर पर बढ़ते प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के दौर में पर्यावरण विषय पर विश्व पुस्तक मेले का आयोजन होना अपनी सार्थकता स्वयंज्ञान और मस्ती का संगम ही सिद्ध करता है। विश्व पुस्तक मेले का आयोजन 6 जनवरी से 14 जनवरी तक किया गया जिसमें विभिन्न देशों, विभिन्न भाषाओं, विभिन्न विषयों और विभिन्न कलाओं से संबंधित पुस्तकें उपलब्ध रहीं। यह पुस्तक मेला ज्ञान और मस्ती का भी संगम स्थल सिद्ध हुआ। विभिन्न विश्विद्यालयों और विभागों के विद्यार्थियों और शोधार्थियों को आपस में मिलने का मौका मिला।पाठकों को अपने पसंदीदा लेखकों से रू-ब-रू होने का अवसर भी। बहुत से ऐसे साथी भी थे जो इस पुस्तक मेले की वजह से कई वर्षो बाद एक दूसरे से मिल पाए।अनेकों पुस्तकों के विमोचन- कार्यक्रम उपयोगी सिद्ध हए।इन विमोचन कार्यक्रमों के बहाने लेखकों और आलोचकों के वैचारिक संवाद का अतिरिक्त लाभ सभी उपस्थित पाठकों को मिलता रहा। साज-सज्जा की दृष्टि से भी यह विश्व पुस्तक मेला आकर्षण का केंद्र रहा, प्रत्येक प्रकाशन ने अपने पाठकों तक अपनी पुस्तकों को पहुँचाने के लिए उन्हें अत्यंत सुव्यवस्थित क्रम में सजाया हुआ था।

इस सभी विशेषताओं के बीच कमिया भी रहीं। जैसे पेयजल की समस्या सभी आने वालों के लिए एक समान थी। पूछे जाने पर अधिकारियों के द्वारा तकनीकी खराबी का बहाना कर, बोतल बंद पानी विक्रेताओ को लाभ पहुचाया जा रहा था, जो प्रत्येक बोतल पानी के लिए लिखित मूल्य से भी अधिक दाम वसूल रहे थे। इसी प्रकार, खाने के लिए न तो पर्याप्त व्यवस्था की गयी थी और न ही ऐसे मूल्य निर्धारित किये गये थे कि वहाँ भोजन कर पाना सामान्य विद्यार्थियों और आमजन के लिए संभव हो पाए। पाठकों को खरीदारी के लिए लाये गये पैसे भोजन पर खर्च करने पड़ रहे थे।


सबसे बड़ी समस्या किताबों की खरीदारी की थी। केशलेश इंडिया के सारे दावे तब खोखले साबित हो रहे थे, जब पाठक किताबों की कीमत अपने डेबिट या क्रेडिट कार्ड के माध्यम से करना चाह रहे थे और अधिकांश प्रकाशकों के पास कार्ड स्वाइप सुविधा ही उपलब्ध नही थी। इतना ही नहीं, प्रशासन द्वारा अस्थायी ए.टी.एम की भी नियमित व्यवस्था नहीं की गयीं थी। इन कमियों के बावजूद  पुस्तक-प्रेमी, पाठक समूह इस विश्व पुस्तक मेले को लेकर अत्यधिक उत्साहित नजर आए। उन्हें खूब खिलखिलाते, मस्ती करते और ज्ञान-विज्ञान के विविध पक्षों पर गहन चर्चाएँ करते हुए आम देखा जा सकता था । अब एक साल तक आगामी विश्व पुस्तक का इंतजार रहेगा और यह भी उम्मीद रहेंगी कि पाठकों के समक्ष आई समस्याओं की  पुनरावृत्ति नहीं होगी ।





दिनेश, शोधार्थी, पंजाब विश्वविद्यालय 




उलझे लोग सुलझे

पहली बार मैं किसी पुस्तक मेले में गया और वो भी विश्व पुस्तक मेला नई दिल्ली में। अंग्रेजी, हिंदी के सभी छोटे बड़े महत्त्वपूर्ण प्रकाशक वहां मौजूद थे। नए-नए विषयों, पर नई-नई पुस्तकें मेले में आई थी, कुछ नई पुस्तकों का विमोचन वहीं नए लेखकों के द्वारा हुआ था। मुझे भी अपने शोध के विषय पर काफ़ी पुस्तकें उपलब्ध हुई। हिंदी पुस्तकों के हॉल संख्या-बारह में, वाणी प्रकशन, राजकमल प्रकाशन, किताबघर प्रकाशन, सामयिक प्रकाशन आदि बड़े प्रकाशनों पर काफ़ी भीड़ दिखी और अंग्रेजी पुस्तकों के हॉल संख्या-ग्यारह में पेंग्विन प्रकाशन, ऑक्सफ़ोर्ड प्रकाशन,आदि पर काफ़ी भीड़ दिखी।  जब मैं अन्तरराष्ट्रीय पुस्तकों, पर्यावरण जिस विषय पर पुस्तक मेला का थीम था, बाल-शिक्षण की आधुनिक तकनीकों, पुस्तकों के हॉल संख्या- सात में गया, तो मैं इससे काफी प्रभावित हुआ।   यह सभी देखकर मैंने पाया कि शिक्षा-शिक्षण का कितना आधुनिकीकरण हो गया है। पुस्तक मेले में मेरी देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए हुए शोधार्थियों, और लेखकों से भेंट हुई, जिनसे मिलकर काफी अच्छा लगा। मैंने वहां संस्कृत भाषा का, जैन धर्म का, कुरान के माध्यम से मुस्लिम धर्म का, बाइबिल के माध्यम से ईसाई धर्म का प्रचार होते देखा। मैंने कभी इतनी भारी संख्या में लोग मंदिरों, मस्जिदों में नहीं देखे, जितनी संख्या में लोग विश्व पुस्तक मेला नई दिल्ली में दिखाई दिए। मैंने बच्चों, वयस्कों, और बुजुर्गों में पुस्तकों की तरफ बढ़ती उत्सुकता को देखा, मैंने उलझे हुए लोगों को कुछ हद तक सुलझते देखा। मैंने कभी स्वयं को पुस्तकें खरीदने के लिए इतना उत्सुक नहीं पाया, जितना विश्व पुस्तक मेला दिल्ली में और मैं पुस्तकें खरीदने कीसे खुद को रोक नहीं पाया, कुछ ग़जलें, आलोचना, उपन्यास, मैं भी ले आया। मुझे दिल्ली विश्व पुस्तक मेला में जाकर बहुत आनंदमयी अनुभूति हुई।  मैं भविष्य में भी विश्व पुस्तक मेला देखने जाता रहूँगा।


ब्रजपाल, शोधार्थी, पंजाब विश्वविद्यालय
   

प्रचार का मंच पर मिठास बरकरार रहेगी

पुस्तक मेले वरदान साबित होते हैं, क्योंकि, एक ही जगह बहुत सारी पुस्तकों का मिलना थोड़ा मुश्किल होता है। मेले में हमें सभी तरह की किताबें देखने-पढ़ने और परखने का मौका मिलता है। व्यक्ति आते हैं और चले जाते हैं, परंतु उनके श्रेष्ठ विचार, ज्ञान, उपदेश, संस्कृति, सभ्यता, मानवीय मूल्यों के रूप में जीवित रहते हैं। अच्छी पुस्तकों से बढ़कर एकांत का साथी ओर कोई नही होता है।

इस वर्ष 26 वां पुस्तक मेले का आयोजन 6 जनवरी से 14 जनवरी तक रहा। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित इस बार मेले में पूरे विश्व से करीब 800 प्रकाशक और 1500 से ज्यादा स्टाल थे। मेले में इस बार कई नए प्रकाशक अपनी किताबों को लेकर आये हुये थे। देश में सालाना अनुमानतः 90 हजार पुस्तकें छपती हैं जिनमें से 25 फीसदी हिंदी में और 20 फीसदी अंग्रेजी में प्रकाशित होती हैं ।


7 जनवरी रविवार को सुबह मैं और मेरा मित्र विकास 11 बजे से पहले ही गेट नम्बर 10 से प्रवेश कर चुके थे। रविवार को जाने का फायदा यह होता है कि वहां पर आपको पुराने अध्यापक, साथी जान-पहचान वाले अधिक संख्या में मिल जाते है। आप उनके साथ बाते भी कर सकते हैं; साथ ही साथ किताबें भी प्रचार का मंच पर खरीद सकते हैं । लगभग सभी भाषाओं की पुस्तकें वहां थी। अनेक स्कूलों के विद्यार्थी वहां आये हुए थे। माता-पिता और दूसरे लोग बड़ी संख्या में उपस्थित थे या उनको देख पढ़ रहे थे। कुछ लोग समूह में पुस्तकों पर चर्चा कर रहे थे। चारों और का वातावरण बड़ा मनोरम था। सभी स्तर और रुचि के लोगों के लिए बढ़िया सामग्री थी। पुस्तक मेले में टहलते समय फ्री में धर्म से सम्बंधित क़िताबों की पेशकश मिलती रहती थी।

हाल नम्बर 12 ए में तमाम हिंदी साहित्य की मौजूदा प्रकाशक थे । राजकमल प्रकाशन का भव्य स्टाल लोगों को अपनी और आकर्षित कर रहा था। पहले दिन 3 बजे तक तो वही राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर पाठकों से मिलते रहे और खरीददारी करते रहे। उनसे से बात करने के बाद पता चला कि इस समय पाठक-वर्ग बदल रहा है। वह कहानी, उपन्यास के अतिरिक्त भी साहित्य की अन्य विधाओं की किताबें पढ़ने के इच्छुक हैं । लोगों की भीड़ सुबह कम रही, लेकिन दिन चढ़ने के साथ बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होने लगे थे। हमने बहुत सारी किताबें और पत्रिकाएं राजकमल, वाणी, प्रभात , गार्गी, ओशो, मनुराज प्रकाशन से खरीद ली तथा बैग के बढ़ते वजन और कंधों का साथ न देने की वजह से कुछ किताबें ऑनलाइन ही खरीद ली जाएंगी; ऐसा सोचते हुए आगे बढ़ते रहे। मेले में शौचालय आदि की बढ़िया सुविधाएं थी,पंड़ाल साफ-सुथरे थे, लेकिन खाने-पीने की चीजों का अभाव था हाँ, हरी घास पर धूप का आनन्द लिया जा सकता था। धूप का लुत्फ उठाते हुए चाय पर निर्णय लिया गया कि अब जितना मेला देख सकते हैं देखेंगे, बाकि कल आएंगे। उसके बाद दोस्तों के पास मुखर्जी नगर बैठकर देर रात तक ठहाके लगाए।

अगले दिन सुबह देर तक सोते रहे लेकिन ठीक 11 बजे हम मेले में पहुँच चुके थे। सबसे पहले मेले में से वही किताबें खरीदी जो अभी लेनी बची हुई थी। उसके बाद प्रकाशकों के सामने से भारी मन से एक एक करके गुजरते रहे; किसी को देख लिया तो किसी को अनदेखा कर दिया। इसके पीछे वजह यह थी कि रात होने से पहले घर के लिए लम्बा सफर तय करना था।

पुस्तक मेले में विमोचनों की होड़ लगी हुई थी। हर लेखक और प्रकाशक यह सोच रहा था कि अगर उसकी किताब का विमोचन मेले में नही हुआ तो उसका लेखन बेकार है। ताबड़तोड़ विमोचनों का असर यह हुआ कि जो पाठक मेले में आये थे, वे बेहद कन्फ्यूज हो रहे थे।

ये बताने का मेरा मकसद सिर्फ इतना है कि मेला अपने उद्देश्य से भटक रहा था। वह केवल प्रचार का मंच दिखाई दे रहा था।

हालांकि अभी और देखने का मन था लेकिन पैर साथ नही दे रहे थे । सर्द मौसम , थकान, भूख, सफ़र जैसी तमाम परेशानियों के बावजूद मेले की मिठास सारा साल बरकरार रहेगी।




सत्याग्रह से साभार

तीन किस्म के लोगों की भीड़ के अलावा विश्व पुस्तक मेले में इस बार नया क्या है?








पुस्तक मेले के बाहर बिखरे पैंफ्लेट और बुकलेट्स.
पुस्तक मेले के बाहर बिखरे पैंफ्लेट और बुकलेट्स.
पुस्तक मेला सुबह से ही गुलज़ार है. गुलज़ार से याद आया, इस मेले में गुलज़ार का पहला उपन्यास ‘टू’ काफी खरीदा जा रहा है जिसे हार्पर कॉलिन्स ने पिछले साल छापा था. लेकिन जब हम हार्पर कॉलिन्स से उनके सबसे ज़्यादा बिकने वाले तीन शीर्षकों के बारे में पूछते हैं तो तीन बड़े ही दिलचस्प नाम सामने आते हैं. पहली किताब है पाउलो कोएल्हो की हरदिल अजीज़ ‘द एल्केमिस्ट’, दूसरी जो आज कल वाकई काफी लोगों के हाथ में दिखने लगी है- ‘द सटल आर्ट ऑफ नॉट गिविंग अ फ*’ और तीसरी है रघुराम राजन की ‘आइ डू व्हाट आइ डू.’ यानी लोग अब भी किताबों में ज़िंदगी को देखने का नया नज़रिया तलाशना चाहते हैं. कम से कम पुस्तक मेलों में जाकर तो ऐसा ही लगता है.

मेले में आने वाले लोगों को देखकर उन्हें मोटा-मोटी तीन किस्मों में बांटा जा सकता है. पहली किस्म के लोग वे हैं जो कुछ घंटों में चार-पांच थैले किताबें भरकर कुछ छाती चौड़ी कर और कुछ शहीदाना अंदाज़ में मेले से बाहर निकलते हैं. इन्हें किताबें इतनी अच्छी लगती हैं कि ये लगभग हर पसंदीदा लेखक की हर किताब खरीद लेना चाहते हैं. पर क्योंकि किताब खरीदना और सारी किताबें पढ़ लेना दो अलग-अलग बातें हैं तो ज़्यादातर किताबें उनकी बुकशेल्फ पढ़ती है और वे अगले मेले में कई बार वे किताबें भी उठा लाते हैं जो उन्होंने पिछली बार भी खरीदी थीं.

दूसरी किस्म उन खरीदने वालों की है जो कम से कम तीन दिन मेले में गुज़ारते हैं. उनके लिए मेला साल की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है. ये लगभग हर स्टॉल पर जाकर उन्हें तसल्ली से समय देते हैं और फिर खूब सोच-विचार कर चुन-चुन कर दो चार किताबें उठाएंगे और उनमें से एक को तो वे मेट्रो में पहुंचते ही पढ़ने भी लगते हैं. ये सच्चे किताबी कीड़े, किताबों पर मोल भाव भी कर लेते हैं और तब भी कीमत ज़्यादा लगने पर बाकी किताबें साल भर एमेज़ॉन से खरीदते हैं.

तीसरी क़िस्म उन लोगों की है जिन्हें किताबें अच्छी तो लगती हैं मगर दूर से. ये कई बार अपने किताब प्रेमी दोस्तों के बहकावे में आकर या फिर कई बार यूं ही वक्त बिताने की गरज़ से मेले में आते हैं, दोस्तों से गप लगाते हुए चारों कोने घूमते हैं, छोले भटूरे खाकर कॉफी पीते हैं, किताबों के साथ या कई बार किताबों के बगैर भी सेल्फी खिंचाते हैं और फिर भी समय बचता है तो किसी स्टॉल के भीतर जाकर किसी मशहूर सी किताब का नाम पढ़कर खुश हो जाते हैं कि अरे, इस किताब के बारे में तो मुझे भी पता है.


वैसे पाठकों के बारे में प्रकाशक बताते हैं कि लोग अब सिर्फ उपन्यास और कविताएं ही नहीं कथेतर भी खरीद रहे हैं. राजकमल प्रकाशन के संपादक सत्यानंद निरुपम कहते हैं, ‘हिंदी प्रकाशन जगत का मिजाज़ पिछले तीन चार सालों में तेजी से बदलता दिख रहा है. इसे आप तमाम प्रकाशकों द्वारा मेले में हाइलाइट और सेलिब्रेट की जा रही किताबों से समझ सकते हैं. अब हिंदी प्रकाशक कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना से अलग विधाओं को भी प्रमुखता से सामने लाने लगा है. इससे एक बड़ा शून्य भरने की दिशा में काम होता दिख रहा है. और ऐसा होने से एक बड़ा पाठक वर्ग हमसे जुड़ रहा है, और आगे भी जुड़ेगा.’

मसलन हम राजपाल एंड संस से प्रकाशित ‘कश्मीरनामा’ की बात कर सकते हैं. इसी मेले में लॉन्च हुई यह किताब दो वजहों से अपने आप में एक विशेष किताब है. अव्वल तो कश्मीर के इतिहास और समकाल पर इस तरह की शोध-आधारित किताब हिंदी में मौजूद ही नहीं है. दूसरे हिंदी में शोध-आधारित किताबें भी बहुत कम ही देखने को मिलती रही हैं. खासकर अगर वे 500 से ज़्यादा पन्नों की हों. इसे मिल रही तवज्जो की हकदार यह किताब मेले में वाकई काफी चर्चित दिख रही है.

चर्चा तो मेले में ‘बुकचोर’ की भी हो रही है. बुकचोर एक ऐसा स्टॉल है जहां आप पुरानी और इस्तेमाल की गई किताबें कम दामों में खरीद सकते हैं. जिस थीम का जिक्र हमने शुरुआत में किया उसे असल में यह स्टॉल सार्थक कर रहा है.

मैं बिलिंग काउंटर के सामने ‘ब्लाइंड डेट विद बुक्स’ देख रही हूं कि पीछे से एक लड़की चिल्लाती है, ‘मुझे गॉन गर्ल मिल गई है.’ इससे एक इशारा यह भी मिलता है कि युवा वर्ग को वे किताबें काफी भाती हैं जिन पर फिल्में बन चुकी हैं. ब्लाइंड डेट विद बुक्स भी काफी फिल्मी कॉन्सेप्ट है. दो शेल्फ में किताबों को गुलाबी और भूरे कागज़ों में लपेट कर, उन पर दिल की चिप्पी लगाकर रखा गया है. कागज़ पर उन किताबों के कीवर्ड्स हैं, जिनके हिसाब से आप किताब पसंद कर सकते हैं. लेकिन किताब खरीदने के बाद जबतक आप उनके ऊपर का कागज़ नहीं हटाएंगे आपको पता नहीं चलेगा कि आपने कौन सी किताब खरीदी है. यहां युवाओं की खूब भीड़ दिखती है.

 
भीड़ की बात करें तो हम ‘नई वाली हिंदी’ फेम हिंद युग्म के प्रकाशक शैलेश भारतवासी को सुन लेना चाहिए. उनका कहना है, ‘इस बार हिंदी के स्टॉल्स पर अंग्रेज़ी से कम भीड़ नहीं है. हिंदी की हलचल बढ़ी है.’ नए लेखकों पर भरोसा दिखाने वाले, और हिंद युग्म को नए लेखकों के लिए सबसे अच्छी जगह बताने वाले शैलेश का कहना है कि नए तरह का कॉन्टेंट, फ्लेवर और पैकेजिंग नए पाठकों को हिंदी की तरफ आकर्षित कर रहा है.
दिल्ली की सर्दी और बाहर से आने वालों की ट्रेनें लेट होने के बावजूद मेले में लोग खूब पहुंच रहे हैं, जो कि प्रकाशकों के लिए खुशी की बात है. लेकिन मेले में स्टॉल्स के बढ़े हुए किराए ने उन्हें उतना भी खुश नहीं होने दिया है. इस बार स्टॉल्स के किराए में लगभग 22 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. तीन बाइ तीन मीटर के स्टॉल का किराया पिछली बार जहां 36 हज़ार रुपए था, वहीं इस बार उतनी ही जगह के लिए उन्हें 44 हज़ार रुपए चुकाने पड़े हैं.
खैर, इसके बावजूद प्रकाशक और संस्थान अपने चेहरे पर मुस्कान बनाए रखते हुए पाठकों का स्वागत कर रहे हैं. क्योंकि मुस्कुराने से पर्यावरण संरक्षण हो न हो, लेकिन ग्राहक संतुष्टिकरण की संभावना ज़रूर बढ़ जाती है.


लिंक:https://satyagrah.scroll.in/article/112734/one-day-in-world-book-fair














 

टिप्पणियाँ

  1. शानदार अभिव्यक्ति,
    सभी ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को सांझा किया है साथ ही अपने पुस्तकों के प्रति प्रेम तथा उनकी जीवन में महत्ता को दर्शाया है।

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  2. सापेक्षिक दृष्टिकोण, शानदार अनुभूति, इस मंच के माध्यम से आपने सभी का पुस्तक मेले को देखने की भिन्न-भिन्न दृष्टियां और व्यक्तिगत अनुभवों को सांझा करने का सफल और सार्थक प्रयास किया है। आपका साधुवाद।

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  3. सापेक्षिक दृष्टिकोण, शानदार अनुभूति, इस मंच के माध्यम से आपने सभी का पुस्तक मेले को देखने की भिन्न-भिन्न दृष्टियां और व्यक्तिगत अनुभवों को सांझा करने का सफल और सार्थक प्रयास किया है। आपका साधुवाद।

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  4. अनुभव सांझा करने के लिए धन्यवाद

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  5. आप ने एक सार्थक प्रयास किया है। आप जो सामग्री उपलब्ध करवा रहे हो ,इससे सभी विद्यार्थी और शोधार्थी लाभान्वित होंगे। भाषा और साहित्य के विकास में यह अतुलनीय योगदान है। आपकी इस कड़ी मेहनत के लिए आपको साधुवाद।

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  6. इन अभिव्यक्तियों से पुस्तक मेले का पूरा ब्यौरा मिल गया। यह निश्चित रूप से हिंदी के विकास की ओर जाता कदम है। बहुत खूब।

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