मुक्तिबोध:अंग्रेजी में Muktibodh in English मुक्तिबोध के बहाने मुक्तिबोध (2)
हिंदी के अकादमिक घेरों पर नज़र डालें तो वहां हमें अंग्रेजी से छत्तीस का आंकड़ा नज़र आता है। एक धारणा यह भी है कि भारत के अंग्रेजीदां हिंदी साहित्य में दिलचस्पी नहीं लेते हैं। यह पूर्णतया सही नहीं है। दरअसल, हमारे संस्थानों के बहुत से उच्चतर अंग्रेजी अध्ययन पाठ्यक्रम अनुवाद में भारतीय साहित्य को अपने में शामिल किये रहते हैं। इनमें हिंदी लेखक भी रहते हैं। इसके अलावा हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को संग लेकर बहुत से शोध-विषयों का निर्माण भी किया जाता है। अंग्रेजी में, हिंदी साहित्य पर पुस्तकों, लेखों या अन्य रूपों में भी सामग्री प्रकाशित हुई है। दरअसल, हिंदी साहित्य पर अंग्रेजी साहित्य के विद्वानों के अतिरिक्त इतिहास, समाजशास्त्र आदि अन्य ज्ञान-क्षेत्रों के विद्वानों ने भी अंग्रेजी भाषा में उल्लेखनीय कार्य किया है। यह कहना होगा कि इस सबकी पूरी जानकारी हिंदी के हलकों में प्रसरित नहीं है। आशा करते हैं कि आने वाले समय में आप इसी ब्लॉग पर इससे सम्बंधित अधिकाधिक जानकारी पाएं।
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आधुनिकतावाद का कवित्त-विवेक: मुक्तिबोध
मूल:
उम्बर्टो इको के इस कथन कि विचारधारा वह विश्वास-व्यवस्था है जिसमें स्वयं का प्रतिवाद करने और वैकल्पिक विश्वास-व्यवस्था, की पहचान करने की जगह ही नहीं होती, के साथ ई. वी. रामकृष्णन, मुक्तिबोध के दरवाजे पर ‘द अनअचीव्ड अब्सोल्यूट एक्सप्रेशन‘ एन्ड द मार्डनिटी आव मुक्तिबोध‘ कहते हुए आवाज लगाते हैं।
संक्रमणकालीन समाजों में अक्सर एक कवि से अपेक्षित होता है कि वह एक आलोचक की भूमिका भी निभाए। इस कवि-आलोचक को विचारों के उस वातावरण को तैयार करना पड़ता है जिसके तहत उसकी रचनाओं का पाठ सम्भव होता है। गजानन माधव मुक्तिबोध एक ऐसे ही कवि-आलोचक थे। समाज के अन्तर्विरोध और सामाजिक व्यवहार के दोगलेपन के बारे में उनका आधारिक अनुभव हिन्दी कविता के प्रचलित रूपों और रूपात्मक संभावनाओं में अंटने वाला नहीं था। 1944 के ‘तारसप्तक’ में छपे उनके वक्तव्य में उनके इस असन्तोष का स्पष्ट उल्लेख है।
आक्टेवियो पाज़ ने एक जगह कहा है कि आधुनिकता की माप-तौल औद्योगिक प्रगति से नहीं वरन् आलोचना और आत्मालोचना की क्षमता से होती है। मुक्तिबोध में आलोचना और आत्मालोचना की यही क्षमता, उनकी आधुनिकता और समकालीन रचनाकारों से उनकी भिन्नता को परिभाषित करती है। इससे इस बात की भी समझ पैदा होती है कि क्यों 1960 के बाद के कवियों पर उनका उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा। काव्यरूपों को खोलने की प्रक्रिया में उन्हें उस काव्य परम्परा के आवश्यक तत्वों को विघटित करना पड़ा जिसने काफी हद तक उनके स्व और संवेदना का गठन किया था। ‘तारसप्तक‘ (1944) के वक्तव्य में वह हमें बताते हैं कि कैसे वह समकालीन हिन्दी कविता के सौन्दर्यवादी आदर्शों और मानवीय यथार्थ जैसा कि टालस्टाय और कुछ मराठी लेखकों की कृतियों में व्यक्त हुआ, के बीच, खींचा-तानी के शिकार होते रहे। लेखक की प्रवजन प्रवृत्ति पर बल देते हुए वह कहते हैं कि लेखक को शुद्धतः निजी और व्यक्तिगत से ऊपर उठना है ताकि वह आधुनिक संसार की बहुलता और विविधता का साक्षात्कार कर सके। मुक्तिबोध यह मानते हैं कि काव्यमय जीवन हमारे दैनिक जीवन का आवश्यक हिस्सा है इसलिए कविता के मूल्य सामान्य जीवन के मूल्यों का खंडन नहीं कर सकते हैं। सौन्दर्यात्मक सवाल इसीलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि वास्तविक जीवन में उनकी आचरणात्मक हिस्सेदारी है। मुक्तिबोध ने उस समय यह लिखा कि प्रसाद, पन्त और महादेवी का जमाना बीत चुका है, उनकी कल्पनाशक्ति और उनकी रहस्यात्मक अनुभूतियां पुरानी पड़ चुकी हैं।
उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध का विद्रोह पूरी हिन्दी काव्य परम्परा के विरूद्ध नहीं था बल्कि रूमानियत के उस संस्करण के विरूद्ध था जिसके बारे में एक अच्छी खासी उदारचरित संरक्षणवादी सहमति बन गई थी। टैगोर की गीतांजलि और भारतीय दर्शन में अहंब्रह्मास्मि की तत्वज्ञानी अवधारणा से प्रेरणा प्राप्त करते हुए छायावादी कवियों ने कविता को एक नया प्रगीतात्मक स्वर दिया जिसमें स्वरूप की और विश्वरूप की एकता पर बल दिया गया था। करीने शोमेर ‘महादेवी वर्मा ऐन्ड द छायावाद, एज आव माडर्न हिन्दी पोअ्ट्री’ में टिप्पणी करती हैं कि छायावादियों के लिए प्रत्येक मनुष्य में कुछ ऐसा है जिसे घटाया या कम नहीं किया जा सकता है और यह कुछ अनन्तः महत्वपूर्ण है।
वस्तुतः छायावादी कविता का सारतत्व यह है कि वह कविता के लिए एक अमूर्त, आत्मनिष्ठ और आभ्यांतरिक लोक की रचना करती है। इस सिलसिले में अपने निबन्ध ‘आधुनिक हिन्दी कविता में यथार्थ’ में महादेवी वर्मा और हरिवंश राय ‘बच्चन’ की तुलना करते हुए मुक्तिबोध कहते हैं कि महादेवी के आंसू हमें द्रवित नहीं करते हैं, जबकि बच्चन की ‘निशानिमंत्रण’ हमें रूलाती है, क्योंकि महादेवी ने दुःखवाद का कल्ट बना लिया जो उनकी कल्पना से उत्पन्न है, इसके विपरीत बच्चन स्वयं रोया है, खुद, तब वह दूसरों को रूला सका। छायावाद की शैल्पिक शब्द-योजना में यह कूवत ही नहीं रही कि वह नई संवेदना के आधारभूत अतर्द्वन्दों को संप्रेषित कर सके। मध्यकालीन भक्त कवियों पर लिखे निबन्ध में मुक्तिबोध यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार यह कवि व्यथा और उत्पीड़न के मानवीय यथार्थ से परिचित और प्रेरित थे। यह भी कि आधुनिक भारतीय कवि को भक्ति काव्य के माध्यम से वह पूर्व औपनिवेशिक परम्परा उपलब्ध है जो वंचित वर्गों के दुःख और उत्पीड़न से पहचान कायम कर चुकी थी। अलबत्ता, जब इस भक्ति परम्परा ने जात-पात से परे अपना प्रभाव क्षेत्र बनाया तब उच्चवर्ग ने जातिभेद को बल देने के लिए इस परम्परा का हरण कर लिया। वर्तमान में भी नए साहित्यिक आन्दोलनों की क्रान्तिकारी सम्भावनाओं का यही हश्र हो रहा है कि शासकवर्ग ने उन्हें यथास्थिति के हित में अनुकूलित कर लिया है। छायावाद और आधुनिकतावाद के साथ यही हुआ और मुक्तिबोध ने इस तरह की कथनी और करनी से विद्रोह किया।
जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी‘ पर मुक्तिबोध का प्रबन्ध, भारतीय कविता की एक केन्द्रीय परम्परा से उनकी पसन्दगी और नापसन्दगी का रिष्ता सामने लाता है। वह प्रसाद के कल्पनात्मक विस्तार, प्रवाह और उनकी आह्वानक ताकत से प्रभावित हैं। वह किसी शोध-विचार को काव्यरूप में प्रस्तुत करने की प्रसाद की योग्यता के भी कायल हैं लेकिन मुक्तिबोध प्रसाद की उस विश्वदृष्टि को खारिज करते हैं जो छायावादी कविता के आभिजात्यवादी और तत्वज्ञानी मिजाज का प्रतिनिधित्व करती है। मुक्तिबोध कामायनी के मनु को उन सामंती मूल्यों का मूर्तिमान रूप मानते हैं जो समकालीन इतिहास की समस्याओं के प्रति उच्चवर्ग के रवैये का बोध कराता है। मुक्तिबोध कहते हैं कि प्रसाद का मनु उसी सामाजिक वर्ग का है जिसका अंग और अंश प्रसाद हैं। कामायनी का मनु, वेदों का मनु नहीं है।
ई.वी.आर. के अनुसार प्रसाद की कामायनी उस प्रगीतात्मक और आत्मविष्लेशक स्व की आभ्यांतरिकता की खोज का प्रयास है जो अपनी निजता की स्थापना भव्य कल्पनाप्रवण प्रश्नों के द्वारा करती है। मनुष्य के उद्गम और उसकी पूर्णता की आकांक्षा की निजी पौराणिकी रच कर प्रसाद उस पीढ़ी को स्वर दे रहे थे जो कला और कल्पना की मूल्यवत्ता का सम्मान करती है और यह विश्वास करती है कि इनके द्वारा मानवीय सीमाओं के परे जाया जा सकता है, मानव जीवन को बदला जा सकता हैं। करीने शोमेर कहती हैं कि ‘कामायनी’ महज़ पुरावृतांतवाद का अभ्यास नहीं है, वरन् इसके जरिए एक ऐसी विश्वदृष्टि बनाने-चुनने की कोशिश की गई है जो आधुनिक हिन्दू बुद्धिजीवी के अन्तर्विरोधों का समाधान कर सके, ऐसा बुद्धिजीवी जो आधुनिक पश्चिम के इहलौकिक दृष्टिकोण और उस धार्मिक (पारलौकिक) दृष्टिकोण के बीच फंसा है जिसकी अब वह साख नहीं रही।
लगभग दो दशकों तक कामायनी से मुक्तिबोध की संलग्नता इस तथ्य को सत्यापित करती है कि मुक्तिबोध उन्हीं अन्तर्विरोधों की अनुक्रिया कर रहे थे जिनके समाधान के लिए प्रसाद प्रयत्नशील थे। मुक्तिबोध ने ‘कामायनी’ को किसी ऐतिहासिक या वैदिक काव्य के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा वरन् उन्होंने उसे एक ऐसी कविता के रूप में देखा जो स्वैरकल्पना (फन्तासी) के माध्यम से समकालीन जीवन की समस्याओं को सम्बोधित कर रही है। चूंकि मुक्तिबोध ने अपनी कविता में इसी प्रकार की कल्पना का उपयोग किया था इसलिए वह यह जानते थे कि कामायनी की विस्तृत काव्यगत संरचना, वह आवश्यक कथाबद्ध ढांचा है जो कवि और उसकी कलावस्तु के बीच में वाजिबी फासला पैदा करती है। मुक्तिबोध यह आवश्यक समझते हैं कि कामायनी की कलागत विशेषता और उसके स्थापत्यिक गुण को उस प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी जीवन दृष्टि से अलग किया जाए जो रचना में मूर्तित होती है। चूंकि कामायनी छायावादी काव्योत्कर्ष का अहम प्रतिनिधित्व करने वाली रचना है अतः उसके अंतर में रूपात्मक प्रवीणता और वैचारिक आकाशीयता के बीच जो विग्रह है वह समकालिक इतिहास की चुनौतियों का सामना करने में हिन्दी की मुख्यधारा की काव्यपरंपरा की गहरी खिंची सीमाओं की ओर इंगित करता है। जहां प्रसाद विभाजित स्व के पुनर्संघटन के लिए भारतीय तत्वज्ञानी परम्पराओं की ओर देखते हैं वहीं मुक्तिबोध ऐसे उपचार को बेकार समझते हैं। अतः प्रसाद की कल्पना और मुक्तिबोध की कल्पना में कोई गहरा मेलजोल नहीं है।
अज्ञेय द्वारा समर्थित आधुनिकतावादी शैली की तर्कणा आंग्ल-अमरीकी साहित्यिक प्रतिष्ठान द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर आधारित थी। रिल्के, वैलेरी, ज्वायस, इलियट और यीट्स वगैरह ने कल्पना की स्वायत्तता और स्वांतः सुखाय कलादृष्टि पर बल दिया है। लेकिन बीसवी सदी के पांचवे दशक तक इस प्रकार की सौन्दर्याभिरूचि या उच्च आधुनिकतावाद भारतीय साहित्यिक गृहस्थी का अंग बन चुके थे ओर छठे दशक तक बहुत से भारतीय विश्वविद्यालयों ने इन्हें अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया था। इस प्रकार आधुनिकतावाद की अंतर्हित मुक्तकारी शक्तियों को वशवर्ती बनाया जा चुका था और एक प्रतिपक्षी संस्कृति के रूप में उसकी वैधता का क्षरण हो चुका था। यह अनायास नहीं कि मुक्तिबोध ने रूमानियत के छायावादी रूप और उच्च आधुनिकतावाद के शास्त्रीकृत संस्करण से दूरी बनाने की कोशिश की क्योंकि यह दोनों ही सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में यथास्थिति की पुष्टि करने लगे थे। मुक्तिबोध ने अपने निबन्ध ‘नयी कविता और आधुनिक भाव-बोध’ में इस बात पर अफसोस जताया है कि हम आधुनिकतावाद की तस्वीर केवल यूरोप और अमरीका में देखते हैं, जिसके फलस्वरूप अनेक भारतीय कवि पश्चिमी काव्य को भारतीय परिधान में प्रस्तुत करने लगे हैं। मुक्तिबोध कहते हैं कि भारतीय कवियों को अफ्रीका, एशिया और लातीनी अमरीका के नवोदित समाजों से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए जहां सामाजिक परिवर्तन और पुनर्रचना के लिए किए जा रहे संघर्ष ने एक नई चेतना पैदा की है।
मुक्तिबोध आश्वस्त थे कि यूरो-अमरीकन उच्च आधुनिकतावाद भारतीय यथार्थ के समन्वेषण के लिए भारतीय साहित्यकार को कोई उपयोगी ढांचा उपलब्ध नहीं करा सकता है। इस बात के दृष्टिगत कि मुक्तिबोध इन विचारों को पांचवे दशक में ही अभिव्यक्ति दे रहे थे, यह सम्भव है कि वह आधुनिक हिन्दी कविता में क्रान्तिकारी प्रवृत्ति का सचेत पोषण कर रहे थे।
पेंगुइन से प्रकाशित ‘न्यु राइटिंग इन इण्डिया’ में आदिल जस्सावाला मुक्तिबोध को अंग्रेजी में अनुदित करने में आई समस्या का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उन्हें अनुदित करने में वही दिक्कत होती है जैसे डायलन टामस को किसी विदेशी भाषा में अनुदित करने में होती हैं। हिन्दी की ध्वनि का पूर्ण उपयोग करते हुए मुक्तिबोध की कविताएं हिन्दू पौराणिकता और लोक कथाओं से भरी पड़ी हैं। इसके साथ ही वह बेबीलोनिया, असीरिया और ग्रीक सभ्यताओं से भी कुछ न कुछ ग्रहण करते हैं।
उक्त स्थिति में स्वाभाविक है कि मुक्तिबोध छोटे प्रगीतात्मक उच्वारों की तुलना में लंबे तारतम्यात्मक वर्णनविधान को अधिक पसन्द करते थे क्योंकि इस तर्जे कलाम में लगातार विकसित होते हुए स्व को धारित करने लायक आख्यानात्मक अवकाश मिल जाता था। ‘तार सप्तक’ के द्वितीय संस्करण में उन्होंने कहा भी कि उनकी समस्या यह नहीं है कि अंतर्वस्तु की कमी है और रूप की समृद्धि है बल्कि समस्या यह है कि अंतर्वस्तु की बहुतायत है और रूप अपर्याप्त है। जुस्तजू इस बात की है कि कैसे अंतर्वस्तु की विविधता को समेट कर इसकी रूप रचना की जाए।
अव्यक्त स्व की मनोवेदना मुक्तिबोध को जीवनभर सालती रही। उनकी ‘अंधेरे में‘ का अन्त निम्न पंक्तियों से होता है:
‘खोजता हूं पठार... पहाड़... समुन्दर
जहां मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म - सम्भवा’।
व्यक्त होने और करने की यह कठिनाई उन औपनिवेशिक जटिलताओं से उपजी थी जो अभिव्यक्ति के रास्ते में अवरोध की तरह खड़ी थीं। इसका मतलब यह था कि मुक्तिबोध अपने अनुभवों के उस राजनीतिक मर्म के लिए जगह पैदा करें जिसके लिए मुख्यधारा की हिन्दी कविता में अब तक कोई गुंजाइश नहीं थी। मुक्तिबोध ‘नयी कविता और आधुनिक भाव बोध’ में कहते हैं कि हमारी जिन्दगियों की खंड-खंड अवस्था के कारण नई कविता केवल द्रुत-क्षणिक बिम्ब बना पाती है। मुक्तिबोध देख सकते थे कि उनके यंत्रणाग्रस्त अन्तस की गहरी बेचैनी एक विभाजित समाज की आन्तरिक हिंसा को प्रतिबिम्बित करती थी। ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ क्योंकि चांद का मुंह टेढ़ा होना उक्त समाज की कुटिलता, दिशाभ्रम और अधोगति का प्रतीक है।
अपनी कविता में मुक्तिबोध प्रतिरोध की एक ऐसी चाक्षुष भाषा की संरचना करते हैं जो संसार का निरूपण करने वाले तमाम सुव्यवस्थित और तार्किक तरीकों को चुनौती देती है। इस सम्बन्ध में ध्यातव्य है कि रूमानियत की छायावादी शैली और उच्च आधुनिकतावाद के शास्त्रीय संस्करण दोनों में ही, उस रूपरीति और बुद्धिवाद को वरीयता दी गई की जो प्राचीन भारतीय दर्शन और नैतिकता की विरासत का समर्थन करते प्रतीत होते थे। किन्तु जिस प्रकार भक्ति आन्दोलनों ने प्राचीन, शास्त्रीय और आभिजात्यवादी विश्वदृष्टि के विरोध में एक प्रतिव्यवस्था खड़ी की थी वैसे ही मुक्तिबोध ने एक ऐसे क्रान्तिकारी आधुनिकतावाद के पोषण का प्रयास किया जो समकालीन इतिहास की विकृतियों को पकड़ने में उनकी घेरेबंद, व्यूहित कल्पना की मदद कर सके।
मुक्तिबोध की कविता के भूदृश्य में प्राचीन खंडहर, परित्यक्त सूनी बावलियां, निर्जन उबड़-खाबड़ पठार, गैर आबाद घाटियां और अन्धेरी संकरी गलियां हैं। इस जमीन की खौफनाकी खुद मुक्तिबोध के अस्तित्व के संकट का बयान करती है। नेमिचन्द जैन को भेजे गए उनके बहुत से खतों में, इस बैरी दुनिया में सम्मान के साथ जीने की उनकी इच्छा और संघर्ष को देखा-पढ़ा जा सकता है। इन खतों में वह अन्धेरा डरावना पाताल है जिसमें वह जी रहे हैं, जहां उनकी आत्मा पर सांप रेग रहे हैं, जहां मन की सारी दुरवस्थाएं प्रेत के आकार में तब्दील होती हैं। इस भूमिगत मनोभूमि का दुःस्वप्न अतिप्रकृत यथार्थवादी (सररिअलिस्टिक) बिम्बो के द्वारा उनकी कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ में प्रकट हुआ हे। ‘तीसरा क्षण’ नामक निबन्ध में उन्होंने रचनात्मक कर्म में स्वैर अथवा विलक्षण कल्पना (फैन्टेसी) के तत्व पर विस्तार से लिखा है। वह कहते हैं कि काव्यकर्म का सर्वोच्च क्षण अथवा तीसरा क्षण उस समय घटित होता है जब सामाजिक यथार्थ से प्रेरित पूर्वोक्त कल्पना शब्दों में मूर्तित होती है और भाषा में इंद्रियसंवेद्य रूप ग्रहण करती है। यहां यह कहना कदाचित अप्रासंगिक न होगा कि रामविलास शर्मा ने पराविद्या में मुक्तिबोध की रूचि और जासूसी कथासाहित्य में उनकी दिलचस्पी को कुछेक उन प्रभावों में से माना है जिन्होंने मुक्तिबोध की कविता के मुहावरे को गढ़ा है।
यहां यह जानना भी उपयुक्त होगा कि यद्यपि अतिप्रकृत यथार्थवाद (सररियलिज्म) प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय अनुभवों से उपजा था तथापि इसने लातिनी-अमरीकी और अफ्रीकी लेखकों को भी खूब प्रभावित किया था। ‘ड्राइंग द लाइन: आर्ट ऐन्ड कल्चरल आईडेनटिटी इन लेटिन अमरीका’ में ओरियाना बड्डे और वलेरी फ्रेज़र ने यह कहा है कि अनेक लातीनी-अमरीकी देशों में खोई हुई मासूमियत के निमित्त, अतीत की ललकित याद (नॉस्टेल्जॅ), प्राचीन कलाओं के रहस्यात्मक संकेत-सूत्र और नमूनागरी की रिवाज़ी ताकत, के कुछ राजनीतिक आयाम रहे हैं। यूरोप द्वारा इन देशों को जीतने और कब्जियाने से पहले का कालखण्ड यद्यपि इन देशों के वर्तमान निवासियों के जीवन के लिए अजनबी ही था तथापि लुप्त अतीत के प्रति उनकी जो कलात्मक आसक्ति थी, वह लातीनी अमरीकी संस्कृति की यूरोप की संस्कृति से अलग पहचान कायम करने में समर्थ थी। अतीत की इस सांदर्भिकता में औपनिवेशिक विग्रह की जानकारी अतर्निहित थी। इन स्रोतों की ओर लौटना दो बातों का परिचायक है, प्रथमतः कलात्मक प्रस्तुति की प्रचलित और मान्य परम्पराओं की अस्वीकृति और द्वितीयतः देसी संस्कृति की विशेष पहचान की दावेदारी।
मुक्तिबोध द्वारा कविता में अतिप्रकृत यथार्थवादी तारतम्यात्मकता का उपयोग भारतीय अनुभूति के पूर्व औपनिवेशिक स्रोतों की ओर लौटने का एक प्रयास है। मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझा जाए तो यह देसी संस्कृति की आद्यरूपा छवियों की ओर वापस आना है। पश्चिम के पारम्परिक साहित्य या मुख्यधारा की भारतीय कविता की खुराक पर पले दिल-ओ-दिमाग को पूर्वऔपनिवेशिक भारत की यह स्वैरकल्पना कुछ विचित्र और विचलित लग सकती है, परन्तु इस कल्पना की मूल्यवत्ता पर बल देकर मुक्बिोध एक ऐसी चाक्षुष भाषा को गढ़ते हैं जो आधुनिकतावादी विरासत से हमारा आमना-सामना कराती है। बड्डे और फ्रेज़र यह बताते है कि तीसरी दुनिया के जो देश सांस्कृतिक स्वाधीनता की छोटी-बड़ी लड़ाइयों में फंसे थे उनके विद्रोह की आंतरिक भाषा को अतिप्रकृत यथार्थवाद वैधता प्रदान करता था। कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ हमें यह समझने में मदद कर सकती है कि कैसे मुक्तिबोध भारतीय स्थिति की विशिष्टताओें को अतिप्रकृत यथार्थवाद में संयोजित करते हैं। अनुष्ठान और स्वप्न की जादुई दुनिया का सृजन करके कविता एक प्रागैतिहासिक वातावरण का आह्वान करती है। ब्रह्मराक्षस एक पैशाचिक, पौराणिक और प्रातिभासिक आकृति है जो मुक्ति की आशा के बिना, प्रायश्चित करने के लिए अभिशप्त है। कविता शुरू होती है शहर के उस ओर खंडहर की तरफ परित्यक्त सूनी बावड़ी से, जिसे घेर रखा है खूब उलझी हुई डालों ने। उसी बावड़ी की अबूझ सिहराती-सिहराती गहराइयों में बैठा हुआ ब्रह्मराक्षस अपनी पाप-छाया को धोने के लिए लगातार देह को साफ कर रहा है। पर यह मैल छूटती नहीं है। तो वह उच्चारता है कोई अनोखा स्तोत्र, कोई क्रुद्ध मन्त्रोच्चार अथवा उमड़ता है शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार। अगर किसी तिरछी होकर गिरती हुई रवि-रश्मि के उड़ते हुए परमाणु उस तक पहुंचते हैं तो वह समझता है कि सूरज ने उसे सलाम भेजा है। अगर भूली भटकी चांदनी की कोई किरण बावड़ी की दीवार से टकराती है तो वह समझता है कि चंद्रमा ने उसे गुरूपद पर अभिषिक्त कर दिया है। ब्रह्मराक्षस ने सारी विद्या पढ़ ली है; सुमेरी -बैबीलोनी जनकथाओं से मधुर वैदिक श्रृचाओं तक, सारे सूत्र, छन्द मंत्र थियोरम, सब प्रमेयों तक और मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, ट्वायनबी, हीडेग्गर, स्पेंगलर, सार्त्र और गान्धी को आत्मसात कर इनका नया व्याख्यान करता हुआ वह अहर्निश नहाते हुए खुद से जूझ रहा है। अंधेरी सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते और चोटिल होते हुए उसे लगता है कि बुरे और अच्छे के बीच के संघर्ष से भी उग्रतर है अच्छे और उससे अधिक अच्छे के बीच का संगर। दो असंगत संसारों के उलझे हुए गणित के रण में अंततः उसका अंत हुआ। इस अतिक्रांत अंतगति के समय में कवि उसका शिष्य होने की इच्छा व्यक्त करता है ताकि वह उसके अधूरे काम को पूरा कर सके और उसकी वेदना के स्त्रोत तक पहुंच सके।
निबन्ध ‘तीसरा क्षण’ में मुक्तिबोध कहते हैं कि भाषा एक सामाजिक परिसम्पत्ति है और हर शब्द के पीछे एक अर्थपरम्परा है जो सामुदायिक जीवन से जुड़ी हुई है। मश्तिष्क को अस्थिर करने वाले वित्रास को एक काव्यपदार्थ में, उसी कला द्वारा परिणत किया जा सकता है जो कला सामाजिक वैधता को अपना प्रतिमान बनाती हो। भावोन्माद और आत्मसंशय के पाताललोक से बाहर निकलने के लिए ब्रह्मराक्षस एक ऐसे गुरू की खोज में है जो उसे उक्त सामाजिक वैधता के संधान के लिए मुक्त कर सके। मुक्तिबोध की आधुनिकता इस तथ्य में निहित है कि वह आधुनिक भारतीय की निजता के संकट को एक बृहत्तर सामाजिक-राजनीतिक और ज्ञानमीमांसक संकट के अंग के रूप में देखते हैं।
मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ इस संकट की स्पष्टतर अभिव्यक्ति है। इस प्रसंग में एक घटना उल्लेख्य है। वर्ष 1962 में मुक्तिबोध की एक पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ को मध्य प्रदेश सरकार ने माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया था लेकिन पुस्तक तुरन्त ही विवादों का शिकार हो गई है और सम्पादकों तथा लेखकों के एक वर्ग ने भी इसका खासा विरोध किया। मुक्तिबोध को सफाई का कोई मौका दिए बिना सरकार ने पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। इस घटना ने मुक्तिबोध को बहुत विचलित किया। हरिशंकर परसाई के अनुसार मुक्तिबोध ने इस सब को फासिस्ट शक्तियों के आर्विभाव के रूप में देखा। इसके अलावा मुक्तिबोध यह देख सके कि जिस विभाजित स्व के कारण अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति बाधित होती है वह वस्तुतः समाज की अंगभंग सांस्कृतिक संवेदना की उपज है।
‘अंधेरे में’ का लम्बा सिलसिलेवार आख्यान कवि के स्व को संघर्ष और द्वंद के क्षेत्र के रूप में चिह्नित करता है। सामाजिक दशा और मनःस्थिति से उत्पन्न भय और मुठभेड़ के रूपक कविता को कोंचते-कुरेदते रहते हैं। कवि के जीवन के अंधेरे में विचरने वाली एक अदृश्य आकृति लाल-लाल कुहरे के श्वास-प्रश्वास से भरी एक तिलस्मी खोह में रहती है। गजब है यह आजानु भुज, सौम्य-सुन्दर सन्देहार्थक आकृति।
‘‘वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का अविर्भाव
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा’’
परन्तु यह अनभिव्यक्त स्व, उसका फटेहाल रूप, उसकी रक्त रंजित काया, ये सब, भय, पश्चाताप और दुश्चिंता की खोह में फंसे हुए तड़प रहे हैं। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि सरकारी नौकरी करने के सिलसिले में उन्हें अपनी वामपंथी प्रतिबद्धता को छिपाना पड़ा था। एक आविष्ट स्व जो रूग्ण परछाइयों के भीतर चला जाता है, एक प्रताड़ित स्व जिसके पीछे सत्ता पड़ी हुई है, एक ही कलाकार का रूप हैं, जो अपने विभिन्न स्वों को उस एकात्मकता में संघटित करने में असफल है जो परम अभिव्यक्ति को सम्भव बनाती है। कविता में अनेक स्थल ऐसे हैं जिनमें सड़कों और गलियों में हो रहे जनान्दोलनों के चित्र हैं और उन आन्दोलनों को निमर्मतापूर्वक कुचले जाने के दृश्य हैं। इन्हीं सड़कों को रौंदता हुआ गुजरता है, एक भुतहा जुलूस जिसमें हमकदम हैं प्रतिष्ठित पत्रकार, आबदार वर्दीधारी, प्रकाण्ड आलोचक और विचारक, जगमगाते कविगण और मंत्री, उद्योगपति और एक कुख्यात हत्यारा। यह जुलूस उस सामाजिक परिवेश के दुःस्वप्नात्क वैरभाव को सामने लाता है जिसमें कवि सांस ले रहा है। ऐसे वातावरण में अपनी बात कहना कितना मुश्किल और खतरनाक हो जाता है। अपनी बात कहने के लिए कवि को सारे मठ और गढ़ तोड़ने होंगे, पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार... तब कहीं मिलेगा झील के सुनील जल में कांपता हुआ अरूण कमल, परम अभिव्यक्ति के क्षण का वह प्रतीक जिसे कवि सारी उम्र खोजता रहा है। कवि की यह यात्रा उन मूल्यों को अस्वीकृत करती है जो समाज के मध्यवर्ग ने उस पर थोपे हैं। कविता के चौथे हिस्से में उस अपराध-बोध का स्वीकारोद्गार है जहां कवि इस सामाजिक अस्वस्थता का उत्स अपनी आत्मपरकता में भी पाता है। मुक्तिबोध ने यहां खुद को छेद-खोद डाला है-
‘लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करूणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य-त्याग दिये,
हृदय के मन्तव्य-मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिए,
जम गए, जाम हुए, फंस गए,
अपने ही कीचड़ में धंस गए!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गए!
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम’
यह आत्मसमीक्षा, आधुनिकतावाद के पालक पोषक लक्षणों के विरोध का एक प्रयास है। कविता के एक अन्य हिस्से में कवि स्वयं को इस सामाजिक दुरवस्था के लिए जिम्मेदार ठहराता है। मुक्तिबोध बल देकर कहते हैं कि एक कवि के रूप में उनकी सच्ची पहचान किसी पृथक और निजी हैसियत में नहीं है वरन् सामूहिक-सामाजिक शक्ति के एक ऐसे अंग के रूप में है जो इतिहास को फिर से सक्रिय कर सकता है।
वस्तुतः ‘अंधेरे में’ उस आत्मिक शून्य के बारे में कही गई कविता है जो उदार मानवतावादी (लिबरल हयुमनिज़्म- बहुत मोटे तौर पर एक वह साहित्यिक अवधारणा जिसमें राजनीतिक प्रतिबद्धता पर बल नहीं दिया जाता है और मानव स्वभाव को नियत तथा सतत माना जाता है जिसके फलस्वरूप किसी साहित्यिक रचना को किसी कालखंड की सामाजिक-राजनीतिक कक्षा में स्थापित करने की आवश्यक नहीं होती है। संक्षिप्त और मार्मिक ढंग से कहें तो यह पूछने की आवश्यकता नहीं है कि बन्धु आप की लोकेशन क्या है?) विचारधारा के हृदय में जगह बनाए हुये थी और जिससे बहुत से भारतीय बुद्धिजीवी प्रभावित थे। इससे अलग मुक्तिबोध कहते हैं;
‘‘कविता में कहने की आदत नहीं पर कह दूं,
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातन्त्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को, जन को।‘
उदार मानवतावादी वाग्मिता की सुविधा यह है कि एक उत्तरऔपनिवेशिक समाज में जो परस्पर--विरोधी आवेग जन्म लेते और पनपते हैं उनकी अनदेखी की जा सकती है और कुछ हद तक तथा कुछ जोर-जबरदस्ती के साथ उनमें परस्पर-अनुकूलता भी दिखाई जा सकती है। राज्यसत्ता से चोट खाए हुए मुक्तिबोध देख सकते थे कि इस तरह का छद्म मेल-मिलाप आगे चल कर व्यक्ति और समाज को छिन्न-भिन्न करने का काम ही करेगा। परम अभिव्यक्ति की खोज, उनका एक ऐसा प्रयास है जिसके जरिए वह स्वयं को अपने ऐतिहासिक सन्दर्भों की भौगोलिकी में स्थापित कर रहे थे। कविता के आखिरी हिस्से में वह बताते हैं;
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झांक-झांक देखता हूं हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
मुक्तिबोध के सामने यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अव्यक्त निजस्व का प्रत्यादान (वसूलयाबी), परिवेश की विशिष्ट यथार्थता और जिए गए जीवन के गुणावगुण की अनुभूति से ही होता है।
मुक्तिबोध की आधुनिकता में, कला के इस कौशल की पहचान है कि कला, व्यक्ति और समाज के बीच मध्यस्थीय हस्तक्षेप करके अभिव्यक्ति के ऐसे प्रवाहशील मुहावरे को प्राप्त कर सकती है जहां सौन्दर्यशास्त्र और नीतिशास्त्र की समस्याओं में परस्पर अनन्यता नहीं होगी, जहां यह दोनों कोई द्विध्रुवीय संकल्पनाएं नहीं होंगी।
**
बहरहाल, इस तरह के पठन-पाठन के दायरों में मुक्तिबोध भी आते हैं। अंग्रेजी में, भारतीय कविता के किसी भी अध्ययन में उनके नाम और काम का शुमार अब एक आम बात लगती है। इसमें से कुछ सामग्री तक हम पहुँच पाए हैं। हमारा अनुमान है कि इससे कहीं ज्यादा ऐसी पाठ्य-वस्तु है, जिस तक हम अभी नहीं जा सके हैं। निम्नलिखित को अपडेट करने का सिलसिला चलता रहेगा; वैसे ही जैसे हम उनके बारे हिंदी में प्रस्तुत सामग्री को अपडेट कर रहे हैं। अस्सी के लगभग दिए पहले नेट-स्थलों को बढ़ा कर अब हम सौ कर रहे हैं।
इस कार्य में सहयोग के लिए हम पक्षधर पत्रिका के संपादक सर्वश्री विनोद तिवारी (http://pakshdhar.com/ ) तथा पत्रकार अमरीक सिंह के आभारी हैं। इस बीच सदानीरा ( http://www.sadaneera.com/ ) के संपादक श्री आग्नेय ने सूचित किया है कि वे इस ब्लॉग पर छपे Edward Hirsch के अनुवादित लेख 'कविता कैसे पढ़ें' को छापना चाह रहे हैं। बहुत धन्यवाद।
इस कार्य में सहयोग के लिए हम पक्षधर पत्रिका के संपादक सर्वश्री विनोद तिवारी (http://pakshdhar.com/ ) तथा पत्रकार अमरीक सिंह के आभारी हैं। इस बीच सदानीरा ( http://www.sadaneera.com/ ) के संपादक श्री आग्नेय ने सूचित किया है कि वे इस ब्लॉग पर छपे Edward Hirsch के अनुवादित लेख 'कविता कैसे पढ़ें' को छापना चाह रहे हैं। बहुत धन्यवाद।
प्राप्त सामग्री कई प्रकार की है। उल्लेख के रूप में तो मुक्तिबोध असंख्य स्थलों में मिल जाते हैं, जहाँ वे बहस के किसी बिंदु को स्पष्ट करने के लिए प्रयोग किये गए हैं। उन पर अपेक्षाकृत विस्तृत टिपण्णी करने वाले स्थलों को ही यहाँ जगह दी गयी है। इस सामग्री में विस्तार की खूब गुंजाईश बनी हुई है; लेकिन जो हमने पाया वह भी आँखे खोलने वाला है। नीचे आप खुद देख सकेंगे।
हिंदी में साहित्यिक सन्दर्भ में अनुवाद-कार्य काफी बढ़ा है। शायद ही कोई साहित्यिक पत्रिका हो, जिसके हरेक अंक में एक-आध विदेशी भाषा से अनूदित रचना न हो। ये अनुवाद, बहुधा अंग्रेजी के सहारे से ही होते हैं; मूल भाषा से अंग्रेजी और फिर वहां से हिंदी। यह नोट करना दिलचस्प होगा कि इसमें भारतीय अंग्रेजी लेखकों की रचनाएं कदाचित ही होती हैं। एक अलिखित, अकथित, छत्तीस का आंकड़ा वहां भी नज़र आता है। कभी-कभार अपवाद मिल सकते हैं। ऐसे में हिंदी को लेकर अंग्रेजी में किये गए आलोचनात्मक लेखन का अनुवाद तो और भी दुर्लभ है। यह थोड़ा कठिन भी होगा; सृजनात्मक-कार्य के अनुवाद की तुलना में। ऐसे अनुवाद-कार्य में जिस प्रकार का तकनीकी शब्द-जाल होता है; उससे निपटना अकादमिक-जन के लिए अधिक सरल होना चाहिए। अंग्रेजी से कविता-कहानी आदि का अनुवाद तो हिंदी के कवि-कहानीकार या साहित्य-रसिक खुद ही करते आये हैं। यहाँ भी वही स्थिति है, जैसा कि भारतीय सृजनात्मक अंग्रेजी-लेखन की है ; विदेशी आलोचकों और साहित्य-चिंतकों का यतिकिन्चित हिंदी अनुवाद तो प्राप्त हो जाता है; भारत के अंग्रेजी में काम करने वाले आलोचकों या समाज-वैज्ञानिकों का हिंदी भाषा या साहित्य को लेकर किया गया लेखन-कर्म अनुवाद का मुंह जोहता है। वैसे इस काम को ये अंग्रेजी विद्वान किसी सीमा तक खुद भी कर सकते होंगे, पर इसकी मांग तो हिंदी वालों को ही करनी होगी। मान सकते हैं; मांग होगी तो पूर्ति भी होगी।
इस शृँखला में अभी काफी कुछ और आपके सामने लाने की संभावना बची हुई है। प्रतीक्षा करते रहिएगा।
हमें पाठकों की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहती है; यद्यपि अनौपचारिक रूप से अब तक उत्साहवर्धक स्नेह मिला है। इनका एक सामाजिक महत्व भी होगा, क्योंकि इनसे एक वातावरण बनता है। इस ब्लॉग के माध्यम से हम हिंदी अध्ययन को बृहत्तर आयामों से जोड़ने के प्रयास जारी रखेंगे। आपका सहयोग मिला तो इसे एक आंदोलन का रूप दिया जा सकता है। क्या आप इससे बाहर रहेंगे? आपकी सक्रिय और प्रत्यक्ष भागीदारी से ही यह संभव होगा। पोस्ट पढ़ने के बाद कृपया अपना मत जरूर दर्ज़ करें।उसमें आपके सुझाव भी आएंगे। वे भी आप और हमारे इस काम को आगे बढ़ाएंगे।
अंग्रेजी में मुक्तिबोध से सम्बंधित सामग्री
Gain in Poetry Translation: Translation E valuation of Gajanan Madhav Muktibodh’s Long P oem A n dhere Mein ( In the Dark )
People's Art in the Twentieth Century (ENGLISH+HINDI)
The individual against the society, feminism and experimentalism in the short story “PRASHN” (The question) by Gajanan Madhav Muktibhodh
Cranes in the Drought
BLACK MONEY, Naya CHAR PCPIR and GAJANAN MADHAV MUKTIBODH
Who is the best poet in hindi who's poems are still relevant today?
muktibodh
Muktibodh in Our Time
Analysis on Modern Indian Literature (So Very Far by G.M. Muktibodh)
India
The Info List - Gajanan Madhav Muktibodh
ऐसे माहौल में प्रतिष्ठित हिंदी कहानीकार हरिचरण प्रकाश का उद्यम न केवल अत्यंत श्लाघा-योग्य है; बल्कि काफी हद तक सफल और उद्देश्यपूर्ण है। पहले उन्होंने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अब दिवंगत प्रखर अंग्रेजी-हिंदी विद्वान प्रो.जयदेव की पुस्तक "The Culture of Pastiche: Existential Aestheticism in the Contemporary Hindi Novel" से "पश्तीश की संस्कृति के चार अध्याय" ( कथादेश, जून 2014 ) और हाल के बरसों में, उन्होंने इसी संस्थान द्वारा प्रकाशित E.V. Ramakrishnan की किताब "Making It New: Modernism in Malayalam, Marathi and Hindi Poetry" में से अपने अध्ययन के आधार पर "आधुनिकतावाद का कवित्त विवेक" नाम से एक लेख चर्चित हिंदी साहित्यिक पत्रिका "पाखी" ( जनवरी, 2016 ) के अंक में छपवाया। बाद में यह ब्लॉग तिरछी स्पेलिंग में भी आया। इसी में से मुक्तिबोध से सम्बंधित दीर्घ अंश को हम यहाँ फिर से प्रकाशित कर रहे हैं।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध की विख्यात लम्बी कविता "अँधेरे में" का प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद प्रतिष्ठित हिंदी कथाकार और अंग्रेजी विद्वान-लेखक कृष्ण बलदेव वैद ने "In The Dark" शीर्षक से किया है
यह सब करते हुए , हम oclc worldcat identities (http://worldcat.org/identities/lccn-n81063446/ ) के संपर्क में आये। मुक्तिबोध से सम्बंधित स्वतंत्र पुस्तक-प्रकाशनों के बारे में जानकारी देने वाला इससे बड़ा अंतराष्ट्रीय स्रोत शायद ही कोई दूसरा हो। इसका परिचय नीचे दिया जा रहा है।** इसने अंग्रेजी-हिंदी में मुक्तिबोध से सम्बंधित कोई 300 प्रकाशनों का ब्यौरा इकट्ठा किया है। मुक्तिबोध पर या किसी अन्य लेखक पर प्रकाशित हिंदी गर्न्थों की जानकारी के लिए यह एक अनुपम स्रोत प्रतीत हो रहा है। शोधार्थियों के लिए अनुपम खज़ाना। यहाँ अंग्रेजी में लिखे एक शोध-प्रबंध ( शिकागो विश्वविद्यालय, अमरीका ) और एक सम्पूर्ण आलोचना-पुस्तक का पता चला।यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध की विख्यात लम्बी कविता "अँधेरे में" का प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद प्रतिष्ठित हिंदी कथाकार और अंग्रेजी विद्वान-लेखक कृष्ण बलदेव वैद ने "In The Dark" शीर्षक से किया है
इस शृँखला में अभी काफी कुछ और आपके सामने लाने की संभावना बची हुई है। प्रतीक्षा करते रहिएगा।
हमें पाठकों की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहती है; यद्यपि अनौपचारिक रूप से अब तक उत्साहवर्धक स्नेह मिला है। इनका एक सामाजिक महत्व भी होगा, क्योंकि इनसे एक वातावरण बनता है। इस ब्लॉग के माध्यम से हम हिंदी अध्ययन को बृहत्तर आयामों से जोड़ने के प्रयास जारी रखेंगे। आपका सहयोग मिला तो इसे एक आंदोलन का रूप दिया जा सकता है। क्या आप इससे बाहर रहेंगे? आपकी सक्रिय और प्रत्यक्ष भागीदारी से ही यह संभव होगा। पोस्ट पढ़ने के बाद कृपया अपना मत जरूर दर्ज़ करें।उसमें आपके सुझाव भी आएंगे। वे भी आप और हमारे इस काम को आगे बढ़ाएंगे।
अंग्रेजी में मुक्तिबोध से सम्बंधित सामग्री
Gain in Poetry Translation: Translation E valuation of Gajanan Madhav Muktibodh’s Long P oem A n dhere Mein ( In the Dark )
People's Art in the Twentieth Century (ENGLISH+HINDI)
The individual against the society, feminism and experimentalism in the short story “PRASHN” (The question) by Gajanan Madhav Muktibhodh
Cranes in the Drought
BLACK MONEY, Naya CHAR PCPIR and GAJANAN MADHAV MUKTIBODH
Who is the best poet in hindi who's poems are still relevant today?
muktibodh
Muktibodh in Our Time
Analysis on Modern Indian Literature (So Very Far by G.M. Muktibodh)
India
The Info List - Gajanan Madhav Muktibodh
New Poetry in Hindi
The Rhetoric of Protest and Politics of Dissonance: A Comparative Study of Thangjam Ibopishak’s ‘‘I Want to be Killed By an Indian Bullet’’ and ‘‘Land of Half- Humans’’ and Muktibodh’s “Void” and “So Very Far”
The Writer as Critic: Essays in Literature, History, and Culture.
New Poetry in Hindi: Reflections on Changing Values and the Emerging Social Order in India
What are some of the saddest poems ever written in Hindi
Romance, Resistance and Change: Hindi Poetry of the Twentieth Century
The Void
So very far, G.M. Muktibodh
The Void Introduction Poem - with eng subs
Self as Image in Asian Theory and Practice
Literature in Use: The Muktibodh Alibi
G.M.Muktiboth, “The Void” ,“So Very Far”
Gajanan Madhav Muktibodh
SADHO POETRY WALLPAPERS
muktibodh's brahmarakshas
A Single Shooting Star
Narratological analysis of the poem AṂDHERE MEṆ of Gajānan Mādhav Muktibodh
Books by Gajanan Madhav Muktibodh
Brahmarākshasa in Modern Hindi L iterature
Presentation on theme: "G.M. MUKTIBODH."
Muktibodh’s fantasies, decades old are reality today
The worker of poetry
In Darkness – Muktibodh’s century
Poet of dark hope
On Every Step
muktibodh
The Poet
Stars scatter the sky’s edge...
आधुनिकतावाद का कवित्त-विवेक: मुक्तिबोध
मूल:
ई.
वी.
रामकृष्णन
की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक
‘मेंकिंग इट न्युः
माडर्निज्म इन,
मराठी
एंड हिन्दी पोएट्री
प्रस्तुति: हरिचरन प्रकाश उम्बर्टो इको के इस कथन कि विचारधारा वह विश्वास-व्यवस्था है जिसमें स्वयं का प्रतिवाद करने और वैकल्पिक विश्वास-व्यवस्था, की पहचान करने की जगह ही नहीं होती, के साथ ई. वी. रामकृष्णन, मुक्तिबोध के दरवाजे पर ‘द अनअचीव्ड अब्सोल्यूट एक्सप्रेशन‘ एन्ड द मार्डनिटी आव मुक्तिबोध‘ कहते हुए आवाज लगाते हैं।
संक्रमणकालीन समाजों में अक्सर एक कवि से अपेक्षित होता है कि वह एक आलोचक की भूमिका भी निभाए। इस कवि-आलोचक को विचारों के उस वातावरण को तैयार करना पड़ता है जिसके तहत उसकी रचनाओं का पाठ सम्भव होता है। गजानन माधव मुक्तिबोध एक ऐसे ही कवि-आलोचक थे। समाज के अन्तर्विरोध और सामाजिक व्यवहार के दोगलेपन के बारे में उनका आधारिक अनुभव हिन्दी कविता के प्रचलित रूपों और रूपात्मक संभावनाओं में अंटने वाला नहीं था। 1944 के ‘तारसप्तक’ में छपे उनके वक्तव्य में उनके इस असन्तोष का स्पष्ट उल्लेख है।
आक्टेवियो पाज़ ने एक जगह कहा है कि आधुनिकता की माप-तौल औद्योगिक प्रगति से नहीं वरन् आलोचना और आत्मालोचना की क्षमता से होती है। मुक्तिबोध में आलोचना और आत्मालोचना की यही क्षमता, उनकी आधुनिकता और समकालीन रचनाकारों से उनकी भिन्नता को परिभाषित करती है। इससे इस बात की भी समझ पैदा होती है कि क्यों 1960 के बाद के कवियों पर उनका उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा। काव्यरूपों को खोलने की प्रक्रिया में उन्हें उस काव्य परम्परा के आवश्यक तत्वों को विघटित करना पड़ा जिसने काफी हद तक उनके स्व और संवेदना का गठन किया था। ‘तारसप्तक‘ (1944) के वक्तव्य में वह हमें बताते हैं कि कैसे वह समकालीन हिन्दी कविता के सौन्दर्यवादी आदर्शों और मानवीय यथार्थ जैसा कि टालस्टाय और कुछ मराठी लेखकों की कृतियों में व्यक्त हुआ, के बीच, खींचा-तानी के शिकार होते रहे। लेखक की प्रवजन प्रवृत्ति पर बल देते हुए वह कहते हैं कि लेखक को शुद्धतः निजी और व्यक्तिगत से ऊपर उठना है ताकि वह आधुनिक संसार की बहुलता और विविधता का साक्षात्कार कर सके। मुक्तिबोध यह मानते हैं कि काव्यमय जीवन हमारे दैनिक जीवन का आवश्यक हिस्सा है इसलिए कविता के मूल्य सामान्य जीवन के मूल्यों का खंडन नहीं कर सकते हैं। सौन्दर्यात्मक सवाल इसीलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि वास्तविक जीवन में उनकी आचरणात्मक हिस्सेदारी है। मुक्तिबोध ने उस समय यह लिखा कि प्रसाद, पन्त और महादेवी का जमाना बीत चुका है, उनकी कल्पनाशक्ति और उनकी रहस्यात्मक अनुभूतियां पुरानी पड़ चुकी हैं।
उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध का विद्रोह पूरी हिन्दी काव्य परम्परा के विरूद्ध नहीं था बल्कि रूमानियत के उस संस्करण के विरूद्ध था जिसके बारे में एक अच्छी खासी उदारचरित संरक्षणवादी सहमति बन गई थी। टैगोर की गीतांजलि और भारतीय दर्शन में अहंब्रह्मास्मि की तत्वज्ञानी अवधारणा से प्रेरणा प्राप्त करते हुए छायावादी कवियों ने कविता को एक नया प्रगीतात्मक स्वर दिया जिसमें स्वरूप की और विश्वरूप की एकता पर बल दिया गया था। करीने शोमेर ‘महादेवी वर्मा ऐन्ड द छायावाद, एज आव माडर्न हिन्दी पोअ्ट्री’ में टिप्पणी करती हैं कि छायावादियों के लिए प्रत्येक मनुष्य में कुछ ऐसा है जिसे घटाया या कम नहीं किया जा सकता है और यह कुछ अनन्तः महत्वपूर्ण है।
वस्तुतः छायावादी कविता का सारतत्व यह है कि वह कविता के लिए एक अमूर्त, आत्मनिष्ठ और आभ्यांतरिक लोक की रचना करती है। इस सिलसिले में अपने निबन्ध ‘आधुनिक हिन्दी कविता में यथार्थ’ में महादेवी वर्मा और हरिवंश राय ‘बच्चन’ की तुलना करते हुए मुक्तिबोध कहते हैं कि महादेवी के आंसू हमें द्रवित नहीं करते हैं, जबकि बच्चन की ‘निशानिमंत्रण’ हमें रूलाती है, क्योंकि महादेवी ने दुःखवाद का कल्ट बना लिया जो उनकी कल्पना से उत्पन्न है, इसके विपरीत बच्चन स्वयं रोया है, खुद, तब वह दूसरों को रूला सका। छायावाद की शैल्पिक शब्द-योजना में यह कूवत ही नहीं रही कि वह नई संवेदना के आधारभूत अतर्द्वन्दों को संप्रेषित कर सके। मध्यकालीन भक्त कवियों पर लिखे निबन्ध में मुक्तिबोध यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार यह कवि व्यथा और उत्पीड़न के मानवीय यथार्थ से परिचित और प्रेरित थे। यह भी कि आधुनिक भारतीय कवि को भक्ति काव्य के माध्यम से वह पूर्व औपनिवेशिक परम्परा उपलब्ध है जो वंचित वर्गों के दुःख और उत्पीड़न से पहचान कायम कर चुकी थी। अलबत्ता, जब इस भक्ति परम्परा ने जात-पात से परे अपना प्रभाव क्षेत्र बनाया तब उच्चवर्ग ने जातिभेद को बल देने के लिए इस परम्परा का हरण कर लिया। वर्तमान में भी नए साहित्यिक आन्दोलनों की क्रान्तिकारी सम्भावनाओं का यही हश्र हो रहा है कि शासकवर्ग ने उन्हें यथास्थिति के हित में अनुकूलित कर लिया है। छायावाद और आधुनिकतावाद के साथ यही हुआ और मुक्तिबोध ने इस तरह की कथनी और करनी से विद्रोह किया।
जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी‘ पर मुक्तिबोध का प्रबन्ध, भारतीय कविता की एक केन्द्रीय परम्परा से उनकी पसन्दगी और नापसन्दगी का रिष्ता सामने लाता है। वह प्रसाद के कल्पनात्मक विस्तार, प्रवाह और उनकी आह्वानक ताकत से प्रभावित हैं। वह किसी शोध-विचार को काव्यरूप में प्रस्तुत करने की प्रसाद की योग्यता के भी कायल हैं लेकिन मुक्तिबोध प्रसाद की उस विश्वदृष्टि को खारिज करते हैं जो छायावादी कविता के आभिजात्यवादी और तत्वज्ञानी मिजाज का प्रतिनिधित्व करती है। मुक्तिबोध कामायनी के मनु को उन सामंती मूल्यों का मूर्तिमान रूप मानते हैं जो समकालीन इतिहास की समस्याओं के प्रति उच्चवर्ग के रवैये का बोध कराता है। मुक्तिबोध कहते हैं कि प्रसाद का मनु उसी सामाजिक वर्ग का है जिसका अंग और अंश प्रसाद हैं। कामायनी का मनु, वेदों का मनु नहीं है।
ई.वी.आर. के अनुसार प्रसाद की कामायनी उस प्रगीतात्मक और आत्मविष्लेशक स्व की आभ्यांतरिकता की खोज का प्रयास है जो अपनी निजता की स्थापना भव्य कल्पनाप्रवण प्रश्नों के द्वारा करती है। मनुष्य के उद्गम और उसकी पूर्णता की आकांक्षा की निजी पौराणिकी रच कर प्रसाद उस पीढ़ी को स्वर दे रहे थे जो कला और कल्पना की मूल्यवत्ता का सम्मान करती है और यह विश्वास करती है कि इनके द्वारा मानवीय सीमाओं के परे जाया जा सकता है, मानव जीवन को बदला जा सकता हैं। करीने शोमेर कहती हैं कि ‘कामायनी’ महज़ पुरावृतांतवाद का अभ्यास नहीं है, वरन् इसके जरिए एक ऐसी विश्वदृष्टि बनाने-चुनने की कोशिश की गई है जो आधुनिक हिन्दू बुद्धिजीवी के अन्तर्विरोधों का समाधान कर सके, ऐसा बुद्धिजीवी जो आधुनिक पश्चिम के इहलौकिक दृष्टिकोण और उस धार्मिक (पारलौकिक) दृष्टिकोण के बीच फंसा है जिसकी अब वह साख नहीं रही।
लगभग दो दशकों तक कामायनी से मुक्तिबोध की संलग्नता इस तथ्य को सत्यापित करती है कि मुक्तिबोध उन्हीं अन्तर्विरोधों की अनुक्रिया कर रहे थे जिनके समाधान के लिए प्रसाद प्रयत्नशील थे। मुक्तिबोध ने ‘कामायनी’ को किसी ऐतिहासिक या वैदिक काव्य के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा वरन् उन्होंने उसे एक ऐसी कविता के रूप में देखा जो स्वैरकल्पना (फन्तासी) के माध्यम से समकालीन जीवन की समस्याओं को सम्बोधित कर रही है। चूंकि मुक्तिबोध ने अपनी कविता में इसी प्रकार की कल्पना का उपयोग किया था इसलिए वह यह जानते थे कि कामायनी की विस्तृत काव्यगत संरचना, वह आवश्यक कथाबद्ध ढांचा है जो कवि और उसकी कलावस्तु के बीच में वाजिबी फासला पैदा करती है। मुक्तिबोध यह आवश्यक समझते हैं कि कामायनी की कलागत विशेषता और उसके स्थापत्यिक गुण को उस प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी जीवन दृष्टि से अलग किया जाए जो रचना में मूर्तित होती है। चूंकि कामायनी छायावादी काव्योत्कर्ष का अहम प्रतिनिधित्व करने वाली रचना है अतः उसके अंतर में रूपात्मक प्रवीणता और वैचारिक आकाशीयता के बीच जो विग्रह है वह समकालिक इतिहास की चुनौतियों का सामना करने में हिन्दी की मुख्यधारा की काव्यपरंपरा की गहरी खिंची सीमाओं की ओर इंगित करता है। जहां प्रसाद विभाजित स्व के पुनर्संघटन के लिए भारतीय तत्वज्ञानी परम्पराओं की ओर देखते हैं वहीं मुक्तिबोध ऐसे उपचार को बेकार समझते हैं। अतः प्रसाद की कल्पना और मुक्तिबोध की कल्पना में कोई गहरा मेलजोल नहीं है।
अज्ञेय द्वारा समर्थित आधुनिकतावादी शैली की तर्कणा आंग्ल-अमरीकी साहित्यिक प्रतिष्ठान द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर आधारित थी। रिल्के, वैलेरी, ज्वायस, इलियट और यीट्स वगैरह ने कल्पना की स्वायत्तता और स्वांतः सुखाय कलादृष्टि पर बल दिया है। लेकिन बीसवी सदी के पांचवे दशक तक इस प्रकार की सौन्दर्याभिरूचि या उच्च आधुनिकतावाद भारतीय साहित्यिक गृहस्थी का अंग बन चुके थे ओर छठे दशक तक बहुत से भारतीय विश्वविद्यालयों ने इन्हें अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया था। इस प्रकार आधुनिकतावाद की अंतर्हित मुक्तकारी शक्तियों को वशवर्ती बनाया जा चुका था और एक प्रतिपक्षी संस्कृति के रूप में उसकी वैधता का क्षरण हो चुका था। यह अनायास नहीं कि मुक्तिबोध ने रूमानियत के छायावादी रूप और उच्च आधुनिकतावाद के शास्त्रीकृत संस्करण से दूरी बनाने की कोशिश की क्योंकि यह दोनों ही सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में यथास्थिति की पुष्टि करने लगे थे। मुक्तिबोध ने अपने निबन्ध ‘नयी कविता और आधुनिक भाव-बोध’ में इस बात पर अफसोस जताया है कि हम आधुनिकतावाद की तस्वीर केवल यूरोप और अमरीका में देखते हैं, जिसके फलस्वरूप अनेक भारतीय कवि पश्चिमी काव्य को भारतीय परिधान में प्रस्तुत करने लगे हैं। मुक्तिबोध कहते हैं कि भारतीय कवियों को अफ्रीका, एशिया और लातीनी अमरीका के नवोदित समाजों से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए जहां सामाजिक परिवर्तन और पुनर्रचना के लिए किए जा रहे संघर्ष ने एक नई चेतना पैदा की है।
मुक्तिबोध आश्वस्त थे कि यूरो-अमरीकन उच्च आधुनिकतावाद भारतीय यथार्थ के समन्वेषण के लिए भारतीय साहित्यकार को कोई उपयोगी ढांचा उपलब्ध नहीं करा सकता है। इस बात के दृष्टिगत कि मुक्तिबोध इन विचारों को पांचवे दशक में ही अभिव्यक्ति दे रहे थे, यह सम्भव है कि वह आधुनिक हिन्दी कविता में क्रान्तिकारी प्रवृत्ति का सचेत पोषण कर रहे थे।
पेंगुइन से प्रकाशित ‘न्यु राइटिंग इन इण्डिया’ में आदिल जस्सावाला मुक्तिबोध को अंग्रेजी में अनुदित करने में आई समस्या का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उन्हें अनुदित करने में वही दिक्कत होती है जैसे डायलन टामस को किसी विदेशी भाषा में अनुदित करने में होती हैं। हिन्दी की ध्वनि का पूर्ण उपयोग करते हुए मुक्तिबोध की कविताएं हिन्दू पौराणिकता और लोक कथाओं से भरी पड़ी हैं। इसके साथ ही वह बेबीलोनिया, असीरिया और ग्रीक सभ्यताओं से भी कुछ न कुछ ग्रहण करते हैं।
उक्त स्थिति में स्वाभाविक है कि मुक्तिबोध छोटे प्रगीतात्मक उच्वारों की तुलना में लंबे तारतम्यात्मक वर्णनविधान को अधिक पसन्द करते थे क्योंकि इस तर्जे कलाम में लगातार विकसित होते हुए स्व को धारित करने लायक आख्यानात्मक अवकाश मिल जाता था। ‘तार सप्तक’ के द्वितीय संस्करण में उन्होंने कहा भी कि उनकी समस्या यह नहीं है कि अंतर्वस्तु की कमी है और रूप की समृद्धि है बल्कि समस्या यह है कि अंतर्वस्तु की बहुतायत है और रूप अपर्याप्त है। जुस्तजू इस बात की है कि कैसे अंतर्वस्तु की विविधता को समेट कर इसकी रूप रचना की जाए।
अव्यक्त स्व की मनोवेदना मुक्तिबोध को जीवनभर सालती रही। उनकी ‘अंधेरे में‘ का अन्त निम्न पंक्तियों से होता है:
‘खोजता हूं पठार... पहाड़... समुन्दर
जहां मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म - सम्भवा’।
व्यक्त होने और करने की यह कठिनाई उन औपनिवेशिक जटिलताओं से उपजी थी जो अभिव्यक्ति के रास्ते में अवरोध की तरह खड़ी थीं। इसका मतलब यह था कि मुक्तिबोध अपने अनुभवों के उस राजनीतिक मर्म के लिए जगह पैदा करें जिसके लिए मुख्यधारा की हिन्दी कविता में अब तक कोई गुंजाइश नहीं थी। मुक्तिबोध ‘नयी कविता और आधुनिक भाव बोध’ में कहते हैं कि हमारी जिन्दगियों की खंड-खंड अवस्था के कारण नई कविता केवल द्रुत-क्षणिक बिम्ब बना पाती है। मुक्तिबोध देख सकते थे कि उनके यंत्रणाग्रस्त अन्तस की गहरी बेचैनी एक विभाजित समाज की आन्तरिक हिंसा को प्रतिबिम्बित करती थी। ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ क्योंकि चांद का मुंह टेढ़ा होना उक्त समाज की कुटिलता, दिशाभ्रम और अधोगति का प्रतीक है।
अपनी कविता में मुक्तिबोध प्रतिरोध की एक ऐसी चाक्षुष भाषा की संरचना करते हैं जो संसार का निरूपण करने वाले तमाम सुव्यवस्थित और तार्किक तरीकों को चुनौती देती है। इस सम्बन्ध में ध्यातव्य है कि रूमानियत की छायावादी शैली और उच्च आधुनिकतावाद के शास्त्रीय संस्करण दोनों में ही, उस रूपरीति और बुद्धिवाद को वरीयता दी गई की जो प्राचीन भारतीय दर्शन और नैतिकता की विरासत का समर्थन करते प्रतीत होते थे। किन्तु जिस प्रकार भक्ति आन्दोलनों ने प्राचीन, शास्त्रीय और आभिजात्यवादी विश्वदृष्टि के विरोध में एक प्रतिव्यवस्था खड़ी की थी वैसे ही मुक्तिबोध ने एक ऐसे क्रान्तिकारी आधुनिकतावाद के पोषण का प्रयास किया जो समकालीन इतिहास की विकृतियों को पकड़ने में उनकी घेरेबंद, व्यूहित कल्पना की मदद कर सके।
मुक्तिबोध की कविता के भूदृश्य में प्राचीन खंडहर, परित्यक्त सूनी बावलियां, निर्जन उबड़-खाबड़ पठार, गैर आबाद घाटियां और अन्धेरी संकरी गलियां हैं। इस जमीन की खौफनाकी खुद मुक्तिबोध के अस्तित्व के संकट का बयान करती है। नेमिचन्द जैन को भेजे गए उनके बहुत से खतों में, इस बैरी दुनिया में सम्मान के साथ जीने की उनकी इच्छा और संघर्ष को देखा-पढ़ा जा सकता है। इन खतों में वह अन्धेरा डरावना पाताल है जिसमें वह जी रहे हैं, जहां उनकी आत्मा पर सांप रेग रहे हैं, जहां मन की सारी दुरवस्थाएं प्रेत के आकार में तब्दील होती हैं। इस भूमिगत मनोभूमि का दुःस्वप्न अतिप्रकृत यथार्थवादी (सररिअलिस्टिक) बिम्बो के द्वारा उनकी कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ में प्रकट हुआ हे। ‘तीसरा क्षण’ नामक निबन्ध में उन्होंने रचनात्मक कर्म में स्वैर अथवा विलक्षण कल्पना (फैन्टेसी) के तत्व पर विस्तार से लिखा है। वह कहते हैं कि काव्यकर्म का सर्वोच्च क्षण अथवा तीसरा क्षण उस समय घटित होता है जब सामाजिक यथार्थ से प्रेरित पूर्वोक्त कल्पना शब्दों में मूर्तित होती है और भाषा में इंद्रियसंवेद्य रूप ग्रहण करती है। यहां यह कहना कदाचित अप्रासंगिक न होगा कि रामविलास शर्मा ने पराविद्या में मुक्तिबोध की रूचि और जासूसी कथासाहित्य में उनकी दिलचस्पी को कुछेक उन प्रभावों में से माना है जिन्होंने मुक्तिबोध की कविता के मुहावरे को गढ़ा है।
यहां यह जानना भी उपयुक्त होगा कि यद्यपि अतिप्रकृत यथार्थवाद (सररियलिज्म) प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय अनुभवों से उपजा था तथापि इसने लातिनी-अमरीकी और अफ्रीकी लेखकों को भी खूब प्रभावित किया था। ‘ड्राइंग द लाइन: आर्ट ऐन्ड कल्चरल आईडेनटिटी इन लेटिन अमरीका’ में ओरियाना बड्डे और वलेरी फ्रेज़र ने यह कहा है कि अनेक लातीनी-अमरीकी देशों में खोई हुई मासूमियत के निमित्त, अतीत की ललकित याद (नॉस्टेल्जॅ), प्राचीन कलाओं के रहस्यात्मक संकेत-सूत्र और नमूनागरी की रिवाज़ी ताकत, के कुछ राजनीतिक आयाम रहे हैं। यूरोप द्वारा इन देशों को जीतने और कब्जियाने से पहले का कालखण्ड यद्यपि इन देशों के वर्तमान निवासियों के जीवन के लिए अजनबी ही था तथापि लुप्त अतीत के प्रति उनकी जो कलात्मक आसक्ति थी, वह लातीनी अमरीकी संस्कृति की यूरोप की संस्कृति से अलग पहचान कायम करने में समर्थ थी। अतीत की इस सांदर्भिकता में औपनिवेशिक विग्रह की जानकारी अतर्निहित थी। इन स्रोतों की ओर लौटना दो बातों का परिचायक है, प्रथमतः कलात्मक प्रस्तुति की प्रचलित और मान्य परम्पराओं की अस्वीकृति और द्वितीयतः देसी संस्कृति की विशेष पहचान की दावेदारी।
मुक्तिबोध द्वारा कविता में अतिप्रकृत यथार्थवादी तारतम्यात्मकता का उपयोग भारतीय अनुभूति के पूर्व औपनिवेशिक स्रोतों की ओर लौटने का एक प्रयास है। मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझा जाए तो यह देसी संस्कृति की आद्यरूपा छवियों की ओर वापस आना है। पश्चिम के पारम्परिक साहित्य या मुख्यधारा की भारतीय कविता की खुराक पर पले दिल-ओ-दिमाग को पूर्वऔपनिवेशिक भारत की यह स्वैरकल्पना कुछ विचित्र और विचलित लग सकती है, परन्तु इस कल्पना की मूल्यवत्ता पर बल देकर मुक्बिोध एक ऐसी चाक्षुष भाषा को गढ़ते हैं जो आधुनिकतावादी विरासत से हमारा आमना-सामना कराती है। बड्डे और फ्रेज़र यह बताते है कि तीसरी दुनिया के जो देश सांस्कृतिक स्वाधीनता की छोटी-बड़ी लड़ाइयों में फंसे थे उनके विद्रोह की आंतरिक भाषा को अतिप्रकृत यथार्थवाद वैधता प्रदान करता था। कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ हमें यह समझने में मदद कर सकती है कि कैसे मुक्तिबोध भारतीय स्थिति की विशिष्टताओें को अतिप्रकृत यथार्थवाद में संयोजित करते हैं। अनुष्ठान और स्वप्न की जादुई दुनिया का सृजन करके कविता एक प्रागैतिहासिक वातावरण का आह्वान करती है। ब्रह्मराक्षस एक पैशाचिक, पौराणिक और प्रातिभासिक आकृति है जो मुक्ति की आशा के बिना, प्रायश्चित करने के लिए अभिशप्त है। कविता शुरू होती है शहर के उस ओर खंडहर की तरफ परित्यक्त सूनी बावड़ी से, जिसे घेर रखा है खूब उलझी हुई डालों ने। उसी बावड़ी की अबूझ सिहराती-सिहराती गहराइयों में बैठा हुआ ब्रह्मराक्षस अपनी पाप-छाया को धोने के लिए लगातार देह को साफ कर रहा है। पर यह मैल छूटती नहीं है। तो वह उच्चारता है कोई अनोखा स्तोत्र, कोई क्रुद्ध मन्त्रोच्चार अथवा उमड़ता है शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार। अगर किसी तिरछी होकर गिरती हुई रवि-रश्मि के उड़ते हुए परमाणु उस तक पहुंचते हैं तो वह समझता है कि सूरज ने उसे सलाम भेजा है। अगर भूली भटकी चांदनी की कोई किरण बावड़ी की दीवार से टकराती है तो वह समझता है कि चंद्रमा ने उसे गुरूपद पर अभिषिक्त कर दिया है। ब्रह्मराक्षस ने सारी विद्या पढ़ ली है; सुमेरी -बैबीलोनी जनकथाओं से मधुर वैदिक श्रृचाओं तक, सारे सूत्र, छन्द मंत्र थियोरम, सब प्रमेयों तक और मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, ट्वायनबी, हीडेग्गर, स्पेंगलर, सार्त्र और गान्धी को आत्मसात कर इनका नया व्याख्यान करता हुआ वह अहर्निश नहाते हुए खुद से जूझ रहा है। अंधेरी सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते और चोटिल होते हुए उसे लगता है कि बुरे और अच्छे के बीच के संघर्ष से भी उग्रतर है अच्छे और उससे अधिक अच्छे के बीच का संगर। दो असंगत संसारों के उलझे हुए गणित के रण में अंततः उसका अंत हुआ। इस अतिक्रांत अंतगति के समय में कवि उसका शिष्य होने की इच्छा व्यक्त करता है ताकि वह उसके अधूरे काम को पूरा कर सके और उसकी वेदना के स्त्रोत तक पहुंच सके।
निबन्ध ‘तीसरा क्षण’ में मुक्तिबोध कहते हैं कि भाषा एक सामाजिक परिसम्पत्ति है और हर शब्द के पीछे एक अर्थपरम्परा है जो सामुदायिक जीवन से जुड़ी हुई है। मश्तिष्क को अस्थिर करने वाले वित्रास को एक काव्यपदार्थ में, उसी कला द्वारा परिणत किया जा सकता है जो कला सामाजिक वैधता को अपना प्रतिमान बनाती हो। भावोन्माद और आत्मसंशय के पाताललोक से बाहर निकलने के लिए ब्रह्मराक्षस एक ऐसे गुरू की खोज में है जो उसे उक्त सामाजिक वैधता के संधान के लिए मुक्त कर सके। मुक्तिबोध की आधुनिकता इस तथ्य में निहित है कि वह आधुनिक भारतीय की निजता के संकट को एक बृहत्तर सामाजिक-राजनीतिक और ज्ञानमीमांसक संकट के अंग के रूप में देखते हैं।
मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ इस संकट की स्पष्टतर अभिव्यक्ति है। इस प्रसंग में एक घटना उल्लेख्य है। वर्ष 1962 में मुक्तिबोध की एक पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ को मध्य प्रदेश सरकार ने माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया था लेकिन पुस्तक तुरन्त ही विवादों का शिकार हो गई है और सम्पादकों तथा लेखकों के एक वर्ग ने भी इसका खासा विरोध किया। मुक्तिबोध को सफाई का कोई मौका दिए बिना सरकार ने पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। इस घटना ने मुक्तिबोध को बहुत विचलित किया। हरिशंकर परसाई के अनुसार मुक्तिबोध ने इस सब को फासिस्ट शक्तियों के आर्विभाव के रूप में देखा। इसके अलावा मुक्तिबोध यह देख सके कि जिस विभाजित स्व के कारण अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति बाधित होती है वह वस्तुतः समाज की अंगभंग सांस्कृतिक संवेदना की उपज है।
‘अंधेरे में’ का लम्बा सिलसिलेवार आख्यान कवि के स्व को संघर्ष और द्वंद के क्षेत्र के रूप में चिह्नित करता है। सामाजिक दशा और मनःस्थिति से उत्पन्न भय और मुठभेड़ के रूपक कविता को कोंचते-कुरेदते रहते हैं। कवि के जीवन के अंधेरे में विचरने वाली एक अदृश्य आकृति लाल-लाल कुहरे के श्वास-प्रश्वास से भरी एक तिलस्मी खोह में रहती है। गजब है यह आजानु भुज, सौम्य-सुन्दर सन्देहार्थक आकृति।
‘‘वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का अविर्भाव
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा’’
परन्तु यह अनभिव्यक्त स्व, उसका फटेहाल रूप, उसकी रक्त रंजित काया, ये सब, भय, पश्चाताप और दुश्चिंता की खोह में फंसे हुए तड़प रहे हैं। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि सरकारी नौकरी करने के सिलसिले में उन्हें अपनी वामपंथी प्रतिबद्धता को छिपाना पड़ा था। एक आविष्ट स्व जो रूग्ण परछाइयों के भीतर चला जाता है, एक प्रताड़ित स्व जिसके पीछे सत्ता पड़ी हुई है, एक ही कलाकार का रूप हैं, जो अपने विभिन्न स्वों को उस एकात्मकता में संघटित करने में असफल है जो परम अभिव्यक्ति को सम्भव बनाती है। कविता में अनेक स्थल ऐसे हैं जिनमें सड़कों और गलियों में हो रहे जनान्दोलनों के चित्र हैं और उन आन्दोलनों को निमर्मतापूर्वक कुचले जाने के दृश्य हैं। इन्हीं सड़कों को रौंदता हुआ गुजरता है, एक भुतहा जुलूस जिसमें हमकदम हैं प्रतिष्ठित पत्रकार, आबदार वर्दीधारी, प्रकाण्ड आलोचक और विचारक, जगमगाते कविगण और मंत्री, उद्योगपति और एक कुख्यात हत्यारा। यह जुलूस उस सामाजिक परिवेश के दुःस्वप्नात्क वैरभाव को सामने लाता है जिसमें कवि सांस ले रहा है। ऐसे वातावरण में अपनी बात कहना कितना मुश्किल और खतरनाक हो जाता है। अपनी बात कहने के लिए कवि को सारे मठ और गढ़ तोड़ने होंगे, पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार... तब कहीं मिलेगा झील के सुनील जल में कांपता हुआ अरूण कमल, परम अभिव्यक्ति के क्षण का वह प्रतीक जिसे कवि सारी उम्र खोजता रहा है। कवि की यह यात्रा उन मूल्यों को अस्वीकृत करती है जो समाज के मध्यवर्ग ने उस पर थोपे हैं। कविता के चौथे हिस्से में उस अपराध-बोध का स्वीकारोद्गार है जहां कवि इस सामाजिक अस्वस्थता का उत्स अपनी आत्मपरकता में भी पाता है। मुक्तिबोध ने यहां खुद को छेद-खोद डाला है-
‘लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करूणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य-त्याग दिये,
हृदय के मन्तव्य-मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिए,
जम गए, जाम हुए, फंस गए,
अपने ही कीचड़ में धंस गए!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गए!
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम’
यह आत्मसमीक्षा, आधुनिकतावाद के पालक पोषक लक्षणों के विरोध का एक प्रयास है। कविता के एक अन्य हिस्से में कवि स्वयं को इस सामाजिक दुरवस्था के लिए जिम्मेदार ठहराता है। मुक्तिबोध बल देकर कहते हैं कि एक कवि के रूप में उनकी सच्ची पहचान किसी पृथक और निजी हैसियत में नहीं है वरन् सामूहिक-सामाजिक शक्ति के एक ऐसे अंग के रूप में है जो इतिहास को फिर से सक्रिय कर सकता है।
वस्तुतः ‘अंधेरे में’ उस आत्मिक शून्य के बारे में कही गई कविता है जो उदार मानवतावादी (लिबरल हयुमनिज़्म- बहुत मोटे तौर पर एक वह साहित्यिक अवधारणा जिसमें राजनीतिक प्रतिबद्धता पर बल नहीं दिया जाता है और मानव स्वभाव को नियत तथा सतत माना जाता है जिसके फलस्वरूप किसी साहित्यिक रचना को किसी कालखंड की सामाजिक-राजनीतिक कक्षा में स्थापित करने की आवश्यक नहीं होती है। संक्षिप्त और मार्मिक ढंग से कहें तो यह पूछने की आवश्यकता नहीं है कि बन्धु आप की लोकेशन क्या है?) विचारधारा के हृदय में जगह बनाए हुये थी और जिससे बहुत से भारतीय बुद्धिजीवी प्रभावित थे। इससे अलग मुक्तिबोध कहते हैं;
‘‘कविता में कहने की आदत नहीं पर कह दूं,
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातन्त्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को, जन को।‘
उदार मानवतावादी वाग्मिता की सुविधा यह है कि एक उत्तरऔपनिवेशिक समाज में जो परस्पर--विरोधी आवेग जन्म लेते और पनपते हैं उनकी अनदेखी की जा सकती है और कुछ हद तक तथा कुछ जोर-जबरदस्ती के साथ उनमें परस्पर-अनुकूलता भी दिखाई जा सकती है। राज्यसत्ता से चोट खाए हुए मुक्तिबोध देख सकते थे कि इस तरह का छद्म मेल-मिलाप आगे चल कर व्यक्ति और समाज को छिन्न-भिन्न करने का काम ही करेगा। परम अभिव्यक्ति की खोज, उनका एक ऐसा प्रयास है जिसके जरिए वह स्वयं को अपने ऐतिहासिक सन्दर्भों की भौगोलिकी में स्थापित कर रहे थे। कविता के आखिरी हिस्से में वह बताते हैं;
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झांक-झांक देखता हूं हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
मुक्तिबोध के सामने यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अव्यक्त निजस्व का प्रत्यादान (वसूलयाबी), परिवेश की विशिष्ट यथार्थता और जिए गए जीवन के गुणावगुण की अनुभूति से ही होता है।
मुक्तिबोध की आधुनिकता में, कला के इस कौशल की पहचान है कि कला, व्यक्ति और समाज के बीच मध्यस्थीय हस्तक्षेप करके अभिव्यक्ति के ऐसे प्रवाहशील मुहावरे को प्राप्त कर सकती है जहां सौन्दर्यशास्त्र और नीतिशास्त्र की समस्याओं में परस्पर अनन्यता नहीं होगी, जहां यह दोनों कोई द्विध्रुवीय संकल्पनाएं नहीं होंगी।
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http://www.worldcat.org
WorldCat is a union catalog that itemizes the collections of 72,000 libraries in 170 countries and territories[3] that participate in the Online Computer Library Center (OCLC) global cooperative. It is operated by OCLC Online Computer Library Center, Inc.[4] The subscribing member libraries collectively maintain WorldCat's database.
OCLC was founded in 1967 under the leadership of Fred Kilgour
See: https://en.wikipedia.org/wiki/WorldCat
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